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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
कार्यपरिग्रहमें उपचार करलेते हैं । इसलिये वाह्यपरिग्रह मूर्छाका दोनोंप्रकार निमित्तपना रखता है उसका कारण भी है और कार्य भी है इसलिये सामान्यरूपसे बाह्यपरिग्रहका भी परिग्रह कहने में कोई आपत्ति नहीं है ।
अतिव्याप्ति और उसका परिहार एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद्धवेनैवं ।
यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मूर्छास्ति ॥११४॥ अन्वयार्थ ( एवं ) इसप्रकार ( परिग्रहस्य ) परिग्रहको ( अतिव्याप्तिः ) अतिन्याप्ति ( स्यात् ) होगी (इति चेत् ) यदि ऐसा है तो ( एवं न भवेत् ) ऐसा नहीं हो सकता (यन। क्योंकि ( अकषायागां ) कायरहित वीतराग मुनियोंके ( कर्मग्रहणे ) कर्मके ग्रहण करने में (न मूर्छा अस्ति ) मूर्छा नहीं है ।
विशेषार्थ – यदि ऊपर कहे अनुसार बाह्यपरिग्रहको मूर्खाका निमित्त मानकर परिग्रह समझा जाता है तो परिग्रहकी अतिव्याप्ति होगी अर्थात् जहां परिग्रहका लक्षण नहीं जाना चाहिये वहां भी परिग्रहका लक्षण चला जायेगा, वैसी अवस्थामें अतिव्याप्तिनामक दोष उपस्थित होगा । जिन वीतरागमुनियोंके कर्म ग्रहण होता है, वह भी तो वाह्यपदार्थ है, और वह भी मूर्छाका निमित्त हो सकता है इसलिये वह भी परिग्रहकोटिमें आ जायेगा, इस दोषके अथवा आशंकाके परिहारके लिये आचार्य कहते हैं कि नहीं, परिग्रहको अतिव्याप्ति नामका दोष कर्मग्रहणमें नहीं आता है, कारण जहां मूर्छानिमित्तता है वहीं परिग्रहका लक्षण जाता है, वीतरागमुनियोंके जो कर्मग्रहण हो रहा है उनके मू निमित्तता नहीं है इसलिये वहां उसका लक्षण नहीं जाता। जहां मूर्छा उत्पन्न होनेकी शक्यता हो वहां किसी प्रकार लक्षणकी संभावना भी मानी जा सकती है परन्तु जहां उसकी शक्यता भी नहीं है वहां परिग्रहके लक्षणकी सत्ता किसीप्रकार घटित नहीं हो सकती । कर्मग्रहण एक तो नितांत सूक्ष्म पुद्गलवर्गणा है। उसमें ग्रहण और त्यागका व्यौहार भी नहीं हो सकता
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