Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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( महिषवृषभादेः अपि भवति ) भैंस बैल आदि पशुओं का भी होता है ( तत्र अपि ) वहां भी ( तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ) उस मांसके आश्रित निगोदजीवराशिके घात होनेसे (किल ) निश्चयसे ( हिंसा भवति ) हिंसा होती है। ___ विशेषार्थ -अनेक कुतर्कीपुरुष ऐसीभी आशंका किया करते हैं कि जिस मांसको जीवबध करके तैयार किया गया है उसके भक्षणमें हिंसा लगती है परन्तु जो मांस स्वयं मरे हुये पशुओंका तैयार किया गया है उसके भक्षणमें कोई दोष नहीं है। इसका उत्तर इस श्लोक द्वारा दिया गया है कि स्वयं मृतजीवके मांसभक्षणमें भी अनेक महान् दोष आते हैं । कारण जो पुरुष मांसभक्षण करते हैं वे साक्षात् जीवके कलेवरका भक्षण करते हैं । ऐसी अवस्थामें उनके कितना तीव्रराग है अथवा कितनी तीव्र पापवासना है उसका विवेचन करना व्यर्थ है। क्या जीवका कलेवर ग्रहण करनेवाले मनुष्योंकी कोटिमें बिठानेके पात्र हैं ? कभी नहीं । वे राक्षस हैं ऐसे पुरुषों के हृदयमें दयाका लेश नहीं हो सकता। फिर भी शंकाकार के कथनानुसार यह मान लिया जाय कि स्वयंमृतके मांसमें क्या जीवबध हो सकता है ? तो उसका उत्तर यह है कि मांस एक ऐसी घृणित वस्तु है जिसमें निरन्तर अनन्त निगोतजीवराशि उत्पन्न होती रहती है । इसलिये मांसभक्षण करनेवाले उस अनन्तजीवराशिका भी भक्षण कर जाते हैं अतएव मांससेवियोंके नियमसे महान्-दुर्गतिमें ले जानेवाली हिंसा होती है ।
पक्वमांसमें भी जीवराशि है आमास्वपि पकवास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानां ॥ ६७ ॥
अन्वयार्थ --( आमासु ) कच्ची (पकासु अपि ) पकी हुई भी ( विपच्यमानासु अपि ) पकती हुई भी ( मांसपेशीपु ) मांसकी डालियोंमें ( तज्जातीनां ) उसी जातिके ( निगोतनां) निगोतजीवराशियोंकी (सातत्येन ) निरंतर ( उत्पादः 'भवति' ) उत्पत्ति होती रहती है ।
विशेषार्थ-कोई यह शंका करे कि-कच्चे मांसमें जीव रह सकते हैं
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