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पुरुषार्थसिद्धय पाय
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विशेषार्थ-मधु ( शहत ) की एक बिन्दु भी बिना मक्खियोंकी हिंसा किये नहीं मिल सकती, कारण कि कोई मघु लेने की चेष्टा करेगा वह पहले उन मक्खियोंके छत्तेको उनके घरको नष्ट करेगा वैसा करनेसे कुछ मक्खियां उड़ जाती हैं परंतु अनेक उसी छत्तेमें दब जाती हैं, छत्तेके निचोड़नेसे पिस जाती हैं। इसके सिवा उस छत्त में रहनेवाले ऐसे पिंड जिनमें कि जीव पड़ चुके हैं वे उसीमें नष्ट हो जाते हैं । ऐसी अवस्थामें उन समस्त जीवोंका बुरी तरहसे घात होता है । जो विचारी मक्खियां छत्तेसे उड़ भी जाती हैं, वे भी उनका घर नष्ट हो जानेसे महान् क्लेश भोगती हैं । इसके सिवा मधु कोई उत्तम पदार्थ भी नहीं है किंतु मक्खियोंके मुहका जूठा उगाल है । पुष्पोंका रस पीकर मक्खियां आती हैं उसी रसको छत्त पर उगलती हैं वही मधु है इसलिये वह मधु खाने योग्य तो क्या छूने योग्य भी पदार्थ नहीं है । हिंसाका विचार करनेसे तो मधुको खानेवाला महान् पापी एवं क्रूरात्मा है, कारण कि मक्खियोंके छत्ते में रहनेवाले असंख्य जीवोंका घात वह करता है जो मधुकी एक बिंदु भी खाता है । इस विषयमें कि जो मधुका एक बिंदु भी खाता है वह सात गावोंके जलादेनेके बराबर हिंसाका भागी होता है। ऐसा समझकर किसी पुरुषको मधुका सेवन कदापि नहीं करना चाहिये किन्तु सदा के लिए सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।
स्वयं गिरे हुए मधुके ग्रहण में हिंसा स्वयमेव विगलितं यो गृहणीयाद्वा छलेन मधु गोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ॥७॥
अन्वयार्थ-[ यः ] जो पुरुष [ गोलात् ] मधुके छत्तेसे [ स्वयं एवं विगलितं ] अपने आप हो गिरे हये [वा] अथवा [छलेन 'विगलितं' ] छल से गिरे हुये [ मधु ] मधुको [गृहणीयात् ] ग्रहण करता है [ तत्रापि ] वहांपर भी [ तदाश्रयप्राणिनां ] उसके आश्रयभूत प्राणियोंके [ घातात् ] घातसे [ हिंसा भवति ] हिंसा होती है ।
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