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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
प्रशंसा करता है इत्यादि अपवादत्यागके अनेक भेद प्रभेद हैं। जिस जातिका जिसने त्याग किया है अर्थात् नव भेदोंसे जिसने जिस भेदसे जिस वस्तुका त्याग किया है उसे उसपर दृढ़ रहकर आगेके भेदोंके त्यागके लिए प्रयलशील होना आवश्यक है।
' निरर्थक स्थावरहिंसा भी त्याज्य है। स्तोकैकेंद्रियघाताद् गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणां। शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयं॥७७॥
अन्वयार्थ - [संपन्नयोग्यविषयाणां ] इंद्रिय विषयोंको न्यायपूर्वक सेवन करनेवाले [ गृहिणां ] गृहस्थोंको [ स्तोकैकेंद्रियघातात् ] अन्य एकेंद्रियके घातके सिवा [ शेषस्थावरमारणविरमणं अपि ] बाकीके स्थावर जीवोंके मारनेका त्याग भी [करणीयं भवति ] करना योग्य है।
विशेषार्थ - यह बात तो निश्चित है कि गृहस्थ स्थावरहिंसासे सर्वथा नहीं बच सकता, कारण कि गृहस्थाश्रममें आरम्भोंका होना अनिकार है, जहां आरम्भ है वहां हिंसाका होना भी अनिवार है । परन्तु विवेकी गृहस्थ प्रयोजनीभूत स्थावरहिंसा तो करता ही है उसके लिये उसका त्याग होना अशक्य है। बिना मुनिपद ग्रहण किए वह हिंसा छूट नहीं सकती। परन्तु प्रयोजनके सिवा बाकी अनावश्यक कार्यों से होनेवाली स्थावरहिंसा को वह छोड़ देता है और यथाशनि परिमित न्यायानुसार विषयोंका ग्रहण करता है। ऐसे विवेकी गृहस्थके लिये आचार्य उपदेश देते हैं कि न्यायानुसार परिमित आवश्यक विषयोंमें प्रवृत्ति करनेवाले गृहस्थसे यद्यपि अन्य अविवेकी अपरिमित एवं अनावश्यक विषयसेवी गृहस्थकी अपेक्षा बहुत कम स्थावरहिंसा होती है फिर भी उसे शेष स्थावर जीवोंकी हिंसाका विचारपूर्वक त्याग कर देना चाहिये अर्थात् यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेसे जो स्थावरहिंसा होती है उसका परित्याग तो वह कर नहीं सकता परन्तु जो स्थावरहिंसा असावधानीसे अनेक व्यर्थ प्रवृत्तिसे होती है उसे अवश्य छोड़ देना चाहिए।
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