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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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( घाते ) मारने में ( न कोषि दोषः अस्ति ) कोई दोष नहीं है ( इति ) इस प्रकार (संप्रधार्य ) अतिथिके लिये ( सत्त्वसंज्ञपनं ) प्राणियों की हिंसा
निश्चय कर के ( अतिथये )
( न कार्य ) नहीं करना चाहिये ।
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विशेषार्थ - कुछ लोगोंने यह भी धर्म समझ लिया है कि यदि घरमें कोई अतिथि अथवा शिष्टपुरुष आवे तो उसके लिये पशुवध करनेमें कोई दोष नहीं है । परन्तु यह बात उन्हीं लोगोंकी मानी हुई है जो कि हिंसा में धर्म माने हुए हैं और स्वयं मांसाहारी हैं । मांसाहारियोंके अतिथि भी मांसाहारी ही प्रायः होते हैं अन्यथा अतिथिके लिए पशुबध करके मांस तैयार करना फलाहारियोंका काम नहीं है । जिस अतिथिके लिये मांसाहार दिया जायेगा वह अतिथि कभी शिष्ट एवं मनुष्यताके व्यवहार योग्य नहीं कहा जा सकता; किन्तु राक्षसवृत्तिवाला है । इसीलिए ऐसे अतिथि मांसाहारियों के यहां पहुंचकर अपनी तृष्णाको पूर्ण करते हैं । वास्तवमें विचार किया जाय तो यह सब तीव्र अधर्म है, किसी भी बुद्धिमानको ऐसी अधर्ममय प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए ।
और भी खोटी समझ
बहुसत्त्वघातजनितादशनाद्वरमेकसत्वघातोत्थं । इत्याकलय्य कार्यं न महासत्वस्य हिंसनं जातु ॥८२॥
अन्वयार्थ – [ बहुसच्त्रघातजनितात् ] बहुतसे प्राणियों के घात करनेसे तैयार होनेवाले [ अशनात् ] भोजनसे [ एकसत्त्वघातोत्थं ] एक प्राणीके घातसे उत्पन्न भोजन [ वरं ] श्रेष्ठ है [ इति ] इसप्रकार [ आकलय्य ] विचार करके [ महासत्त्वस्य ] एक विशाल त्रस प्राणी की [ हिंसनं ] हिंसा [ जातु ] कभी [ न कार्य ] नहीं करनी चाहिये ।
विशेषार्थ - जिन लोगोंका यह मत है कि भोजनमें अनेक स्थावर जीव मर जाते हैं इसलिये उनकी अपेक्षा एक बड़े पशुको मारकर खा लेनेमें उतना दोष नहीं है । वे बहुत खोटी समझ रखते हैं, कारण हिंसा द्रव्यप्राण और भावप्राणोंके नष्ट करनेसे होती है । जिस जीवके जितने ही
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