Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
विशेषार्थ - कुछ लोगोंका यह भी विचार है कि ये बहुतसे प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले संसारमें जितने दिन अधिक जीते रहेंगे उतना ही अधिक पापबंध करते रहेंगे, इसलिये ये विचारे बड़े भारी पापबंधले बच जावें इसकेलिये उन्हें अभी मार देना अच्छा है। इसप्रकार जीवोंके मारने में जो दया समझते हैं वे भारी भूल करते हैं । दया जीवोंकी रक्षामें है, न कि जीवोंकी हिंसामें, जिन जीवोंको मारा जायगा उनके प्राण अवश्य पीड़े जायेंगे और फिर उससे दया न पलकर जीवहिंसाजनित पापबंध होगा । दूसरी बात यह भी है कि जिन बहुत प्राणियोंको मारने वालों पर दया भाव धारण करके तुम उन्हें पापसे बचानेके लिए मारते हो सो ऐसा करनेसे बहुत प्राणियोंके मारने वाले तुम ही दयाके पात्र बन गये क्योंकि संसारमें असंख्य जीव एक दूसरे के हिंस्रक हैं, सभी पर दया करके सबोंको तुम मारोगे इसलिये बहुत प्राणियों के मारने वाले तुम ही दयाके पात्र ठहर गये ! इसलिये यह सिद्धांत कि 'हिंस्रक अनेक जीवोंका बध करते हैं उन्हें मार देना चाहिये' सर्वथा भूलभरा है, कारण यह दयाका स्वरूप ही नहीं है । किसी प्राणीको कष्ट न पहुंचाने के परिणामको ही दया कहते हैं । किसी जीवके मरनेमें महान् कष्ट होता है इसलिये दयालुके स्थानमें क्रूरपरिणामी हिंसक बनना उचित नहीं है । जिस जीवके जैसे भाव हैं उनके अनुसार वह पुण्य पापका बंध करता है, तुम क्यों व्यर्थ ही खोटी समझसे पापबंध के भागीदार बनते हो ?
___ दुःखी भी नहीं मारने चाहिये बहुदुःखाः संज्ञपिता प्रयांति त्वचिरेण दुःखविच्छिति। इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोपि हंतव्याः॥८॥
अन्वयार्थ- (तु) और ( बहुदुःखाः) बहुत दुःखसे सताये हुए प्राणी ( संज्ञपिता ) हुए (अचिरेण ) जल्दी (दुःखविच्छित्ति ) दुःख नाशको ( प्रयांति ) पा जायगे (इति)
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