Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
अन्वयार्थ – [ सुखावाप्तिः ] सुखकी प्राप्ति [ कृच्छ्रेण 'भवति' ] बड़ी कठिनता से होती है, इसलिये [ सुखिनः ] सुखी जीव [ हताः ] मारे हुए [ सुखिन एव ] सुखी ही [ भवंति ] होते हैं [ इति ] इसप्रकार [ तर्कमंडलाग्रः ] विचाररूपी तलवार [ सुखिनां घाताय ] सुखी पुरुषों के घातके लिये [ न आदेयः ] नहीं पकड़ना चाहिये |
विशेषार्थ - कुछ लोगों की ऐसी भी कुबुद्धि है कि संसारमें सुख जीवोंको बड़ी कठिनता से मिलता है इसलिए सुखी जीवोंको सुखसहित अवस्थामें ही मार डालना चाहिये; जिससे कि वे मरकर दूसरी पर्याय में भी सुखी बने रहेंगे । ऐसी मिथ्या एवं युक्तिशून्य समझ रखनेवालों को समझ लेना चाहिये कि सुख दुःखका मिलना शुभ अशुभ कर्मों के अधीन है वह जीने या मरनेमें नहीं धरा है। जहां कहीं भी जीव रहे, कर्माधीन उसे दुःख सुख मिलेगा । यह बात मिथ्या है कि मरकर सुखी जीव सुखमें ही रहेगा, संभव है कि इस पर्याय में उसे सुख रहा है, मरकर वह नरक या तिर्यंचगतिमें चला जाय फिर विचारा महान् कष्टको भोगेगा । दूसरे - सबसे बड़ा कष्ट तो मरनेमें ही है, जब कि वह बिना आयु पूर्ण हुए मध्य में हठात् मारा जा रहा है तो यह ही उसके लिये वजू समान कष्ट है । इसलिये इस प्रकारकी कुबुद्धि धारण कर मनुष्यों को दयाके स्थानमें जीवघात कर हिंसाजनित पापके भागी नहीं बनना चाहिये ।
२३४ ]
स्वगुरुका शिरच्छेद करना भी पाप है।
'उपलब्ध सुगतिसाधन समाधिसारस्य भूयसोभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्तनीयं सुधर्ममभिलषिता ॥ ८७ ॥
अन्वयार्थ – [ भूयसः ] बहुतसे [ अभ्यासात् ] अभ्यास से [ उपलब्ध सुगतिसाधनसमा - धिसारस्य ] सुगतिका कारणभूत समाधिके सारतत्त्वको प्राप्त करनेवाले [ स्वगुरोः ] अपने गुरुका [ शिरः ] शिर [ सुधर्मं अभिलषिता ] श्रेष्ठ धर्मके चाहनेवाले [ शिष्येण ] शिष्य के द्वारा [ न कर्तनीयं ] नहीं काटना चाहिये ।
विशेषार्थ - यह भी महामूर्खता है कि गुरुका भला हो इस बुद्धि से समाधि
१.- छपी हुई प्रतियों में 'उपलब्धि' पाठ है, हमारी समझमें उपलब्ध ठीक प्रतीत होता है । - टीकाकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org