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पुरुषार्थसिद्धय पाय )
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अभक्ष्यपदार्थों का सेवन करता है, सप्तव्यसनके सेवनमें लग जाता है ये सब तमोगुण के कार्य हैं इसलिये उसकी समस्तक्रियायें हिंसाजनक हैं ।
मदिरा जीवोंका पिंड है
रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यं । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायते ऽवश्यं ॥ ६३ ॥
अन्वयार्थ - (च ) तथा ( बहूनां रसजानां जीवानां ) बहुतसे रससे उत्पन्न हुए जीवों के (योनिः ) योनि अर्थात् जीवोंत्पत्तिका आधार ( मद्य ) मदिरा ( इष्यते ) कही जाती है ( मद्य भजतां ) मदिरा पीनेवाले ( तेषां ) उन जीवोंको (हिंसा अवश्यं संजायते ) हिंसा अवश्य लगती है । विशेषार्थमदिराकी उत्पत्ति सड़ाए हुए पदार्थों से होती है । महुआ गुड़ आदि अनेक मादक पदार्थों को इकट्ठा कर महीनों एवं वर्षों सड़ाया जाता है । बहुतकाल सड़ने से उन पदार्थों में तीव्र मादकता उत्पन्न हो जाती है । जो जितने अधिक दिन सड़ाये जाते हैं उनसे उतनी ही अच्छी शराब तैयार होती है । उन महीनों और वर्षों के अनेक मिले हुए दुर्गंधित पदार्थों में असंख्य तो त्रसजीव उत्पन्न हो जाते हैं, और अनंत स्थावर जीव पैदा हो जाते हैं । पीछे उन सड़ाये हुए पदार्थों को मथा जाता है । मथन करनेमें वे समस्त - पंचेंद्रिय तक असंख्य त्रसजीव तथा अनंत स्थावर जीव उसी मदिराके रस में मथ जाते हैं । इसप्रकार अनंतों जीवोंका बध हो चुकने के पीछे फिर जब मदिरा तैयार हो जाती है तो फिर उस दुर्गंधित रसमें असंख्य त्रस और अनंत स्थावर उत्पन्न होते हैं । उसी जीवोंसे सने हुये मदिराको मदिरापीनेवाले दुष्टपुरुष पी जाते हैं । पीछे ज्ञानगुणके मूर्च्छित होनेसे नानाप्रकार के खोटे कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं इस प्रकार मदिरापान महान् हिंसा और अनर्थो का घर है ।
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और भी कहा है-
अभिमानभय जुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेपि च सरकसन्निहिताः ॥ ६४॥
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