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२१. ]
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
नामसे प्रसिद्ध है। अष्ट मूलगुणका पालन करनेवाला मनुष्य ही जैन कहा जा सकता है। जिसके जैनत्वके योग्य मूलगुण ही नहीं है वह जैन नहीं कहा जा सकता इसलिये उपयुक्त मदिरा आदि आठोंका त्याग करना प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है।
मदिरा-पानमें दोष
मद्य मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्म । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशंकमाचरति ॥ ६२ ॥
अन्वयार्थ - ( मद्य ) मदिरा ( मनः मोहयति ) मनको मूर्छित-बेहोश कर देता है ( मोहितचित्तस्तु ) मोहित चित्तवाला पुरुष ( धर्म विस्मरति ) धर्मको भूल जाता है (विस्मृतधर्मा जीवः ) धर्मको भूला हुआ जीव ( अविशंकं ) बिना किसी प्रकार की शंकाके ( हिंसा आचरति ) हिंसाका आचरण करता है।
विशेषार्थ- सबसे बड़ा दोष ज्ञानका नष्ट हो जाना है । मदिरा पीनेवालोंका ज्ञान एकदम नष्ट हो जाता है, उनकी बुरी दशा हो जाती है। उन्हें अपने शरीर तकका होश नहीं रहता। ऐसी अवस्थामें कहां तो विवेक ठहर सकता है और कहां धर्म ठहर सकता है ? मदिरापायी पुरुषके धर्म कर्म विवेक सभी नष्ट हो जाते हैं वैसी अवस्थामें उसकी हिंसामें सुतरां प्रवृत्ति हो जाती है, कारण कि विवेकपूर्ण उत्तमगुणोंकी ओर तो बुद्धिका झुकाव बड़े यत्न करनेपर होता है परन्तु नीचमार्गकी ओर वह सुतरां प्रवृत्त हो जाती है । इसका कारण जीवोंके अनादिकालसे चले आये हीनसंस्कार एवं अशुभकर्मों का उदय ही है इसलिये मदिरा पीनेवाला पुरुष निडर होकर हिंसा करने लगता है । मदिरा पीनेवालेकी हिंसा करने में ही क्यों प्रवृत्ति होती है ? इसका उत्तर यह है कि मदिरासे आत्मामें तमोगुणकी वृद्धि होती है उसके निमित्तसे वह तीव्रकषाय एवं क्रूरतापूर्ण कार्यमें प्रवृत्त होनेके लिये बाध्य हो जाता है। इसलिये देखा भी जाता है कि मदिरापायी पुरुष गाली बकता फिरता है, कुचेष्टाएँ करता फिरता है,
ती है उसकालका उत्तर यह हैदरा पीनेवालेकी
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