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पुरुषार्थसिद्धथ पाय ]
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थोड़ा करता है परन्तु अपने भावोंको कषायसे तीव्र हिंसामय बना डालता है, ऐसी अवस्थामें उसके तीव्र अशुभकर्मका बंध होता है; जिस समय वह कर्मबंध उदयमें आता है उस समय वह बहुत बड़ी हिंसासे होनेवाले फलको देकर उस जीवको महा दुःखी बना डालता है । तथा कोई जीव परिणामोंमें तो मंद कषाय रखता है परन्तु बाह्यप्रवृत्तिमें उसके द्वारा हिंसा अधिक हो जाती है, वैसी अवस्थामें उसके जो कर्मबंध होता है वह मंद रसको लेकर ही होता है, वह जब उदयमें आता है तब थोड़े फलको देकर ही खिर जाता है । यह परिणामोंकी ही विचित्रता है कि कोई बाह्यहिंसा अधिक करनेपर भी परिपाककालमें हिंसाजन्य थोड़ा फल पाता है, कोई बाह्यहिंसा कम करनेपर भी हिंसाजन्य फल अधिक पाता है । इसका मूल कारण यही है कि जिससमय जिस जीवके जैसे परिणाम तीव्र संक्लेशमय या मंद संक्लेशमय होते हैं उसके जो कर्मबंध होता है उसमें रमदानशक्ति वैसी ही मंद या तीन पड़ती है और उदयकालमें वैसी ही कमती या अधिक फल देती है । वाह्यकारण निमित्तमात्र हैं। परिणामोंकी सरागता या वीतरागता ही हिंसा अहिंसारूप फलकी दात्री है ।
और भी एकस्य सैव तीव्र दिशति फलं सैव मंदमन्यस्य। ब्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥५३॥
अन्वयार्थ-[ सहकारिणोः अपि ] दो पुरुषोंके द्वारा साथ साथ की गई भी [ हिंसा ] हिंसा [ फलकाले ] फलकाल प्राप्त होने पर [ अत्र ] आत्मामें [ वैचित्र्यं ] विचित्रताको [व्रजति ] प्राप्त होती है । [ सा एव ] वही हिंसा [ एकस्य ] एक जीवको [ ती फलं ] तीव्र फल [ दिशति ] देती है [ सा एव ] वही हिंसा [ अन्यस्य ] दूसरे जीवको [ मंदफलं दिशति ] मंद फल देती है। __विशेषार्थ यदि दो जीव मिलकर किसी जीवकी हिंसा करें तो उन दोनों
को भी समान हिंसाका फल नहीं होता, जिसके अधिक कषायसहित परिणाम हैं ___ उसे हिंसाका तीब्र फल मिलता है जिसके कुछ कम कषायसहित परिणाम
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