Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
महाराजको देखकर सिंह तो उन्हें मारने के उद्द ेशसे उनपर झपटा परंतु इसी बीच में एक सूकरके परिणामोंमें मुनिमहाराजकी रक्षाका भाव उत्पन्न हुआ, उसने उस सिंहपर आक्रमण किया, दोनों लड़ते लड़ते मर गये, दोनोंके ही क्रूर परिणाम थे, फिर भी सिंहका जीव तो नरक गया और सूकरका जीव स्वर्ग गया। दोनोंके ही हिंस्रक परिणाम थे, दोनों ने दोनों की हिंसा भी की, एक साथ ही उनकी हिंसारूप प्रवृत्ति हुई फिर भी अभिप्रायके भेद से एक स्वर्ग गया दूसरा नरक गया । सिंहका अभिप्राय मुनिमहाराजके घात करने का था इसलिये उसे दुर्गतिमें जाना पड़ा, सूकरका अभिप्राय मुनिमहाराजकी रक्षा करनेका था इसलिये उसे सुगति मिली । इसी दृष्टांत के आधारपर यह बात भली भांति सिद्ध होती है कि एक ही हिंसा एकको हिंसाके फलको देती है और दूसरेको अहिंसाके फलको देती है।
२०४ [
हिंसा अहिंसाका फल
हिंसा फलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनर्हिसा दिशत्यहिंसा फलं नान्यत् ॥ ५७॥
अन्वयार्थ – [ अपरस्य तु] किसीको तो [ अहिंसा ] अहिंसा [ परिणामे ] उदयकाल में [ हिंसाफलं ] हिंसा के फलको [ ददाति ] देती है [ तु पुनः ] और [ इतरस्य ] किसीको [हिंसा ] हिंसा [ अहिंसाफलं ] अहिंसा के फलको [ दिशति ] देती है [ न अन्यत् ] और फलको नहीं ।
विशेषार्थ किसी जीवने किसी जीवके घात करने अथवा उसे हानि पहुंचाने का विचार किया और उसीप्रकारका उद्योग करना आरंभ किया परन्तु दूसरा जीव अपने पुण्योदयसे बच गया अथवा बुरेकी जगह उसका भला हो गया तो ऐसी अवस्थामें हिंसा नहीं होनेपर भी घात करने की चेष्टा करनेवालेको हिंसाका ही फल मिलेगा । तथा किसी पुरुषने एक चिड़ियाके बच्चेको सड़क के किनारे पड़ा हुआ देखकर सुरक्षित रहने के अभिप्राय से एक
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org