Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[पुरुषार्थसिद्धय पाय
विशेषार्थ-इस श्लोकमें परिणामोंकी विचित्रता दिखलाई गई है और उन्हींके ऊपर हिंसाके फलका भोका या अभोक्ता सिद्ध किया गया है । एक जीव दूसरे जीवकी हिंसा तो करना चाहता है परन्तु बाहर प्रवृत्ति में कोई उद्योग नहीं कर सका है अर्थात् अपने परिणामोंको तो हिंसामय भावोंसे उग्र कर चुका है परन्तु दूसरे जीवके प्राणोंका घात नहीं कर सका है ऐसी अवस्थामें हिंसा करनेके भाव रखनेवाला जीव हिंसा करनेका अपराधी हो चुका उसे हिंसाका फल अवश्य मिलेगा, भले ही दूसरे जीवकी हिंसा नहीं हुई है फिर भी उसके-मारनेवालेके परिणाम हिंसारूप होचुके इसलिए उसके जो क्लेशित परिणामों से अशुभास्रव हुआ है उसका फल उसे अवश्य मिलेगा, दूसरा कोई जीव किसी को नहीं मारना चाहता परिणामोंको सदा शांत दयारूप रखता है फिर भी उसके शरीर से किसी जीवका अकस्मात्-बिना उसकी इच्छाके घात होगया वैसी अवस्थामें वह हिंसाके फलका भोक्ता नहीं हो सकता । कारण उसके भाव तो हिंसारूप नहीं हैं, इसलिए हिंसा होनेपर भी वह हिंसाके फलका भोका नहीं हो सकता । यह परिणामोंकी ही विचित्रता है कि कोई हिंसा करता है फिर भी उसे हिंसाका फल नहीं मिलता, कोई हिंसा नहीं करता है फिर भी हिंसा का फल पाता है।
__ और भो एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पं । अन्यस्य महाहिंसास्वल्पफलाभवति परिपाके॥५२॥ अन्वयार्थ –(एकस्य ) किसीको ( अल्पा हिंसा) थोड़ी भी हिंसा (काले ) समय पर उदय कालमें ( अनल्पं फलं ) बहुत फलको ( ददाति ) देती है। ( अन्यस्य ) किसी जीवको ( महाहिंसा ) बहुत बड़ी हुई हिंसा भी ( परिपाके ) फलकालमें ( स्वल्पफला ) थोड़ा फल देनेवाली ( भवति ) हो जाती है ।
विशेपार्थ-कोई जीव बाह्यहिंसा तो कम करता है अर्थात जीवोंका घात
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