Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
वाह्यविनय वह कहलाता है किशुद्धशरीर तथा शुद्धवस्त्रोंसे शुद्ध ऊंचे स्थानमें विनयासनपूर्वक शास्त्रोंका स्वाध्याय करना । जिससमय शास्त्र लाये जाते हों उससमय खड़े हो जाना। उनके चौकीपर विराजमान हो जानेपर अष्टांग नमस्कार करना, उन्हें उत्तम वेष्टनमें रखना, सुरक्षित रखना, सर्दी में धूप दिखाना, लिखना, लिखवाना, दूर रेको स्वाध्यायके लिये देना, ये सब बातें वाह्यविनयमें गर्भित हैं। अभ्यंतर विनय वह कहलाता है, कि हृदयमें जिनवाणीकी पूर्णभक्ति रखना, शास्त्रोंका अच्छी तरह मनन करके बुद्धिको निर्मल एवं विशेष क्षयोपशमशालिनी बनाना, जैनधर्मके सिद्धांतों को सर्वव्यापी बनाना, इत्यादि अंतरंग विनय है।।
व्याकरणसे शब्दोंको परिष्कृत करके, अर्थात् शब्दशास्त्रसे शब्द वा वाक्योंको शुद्ध करके अक्षर, पद, वाक्य, चरण, श्लोक, पंकि, सूत्र आदिका शुद्धोच्चारणपूर्वक पठन पाठन करनेका नाम शब्दाचार अथवा ग्रंथाचार है । शब्दाचार, श्रुताचार, व्यंजनाचार, अक्षराचार, ग्रंथाचार आदि सभी पर्यायवाची ( एकार्थवाचक ) शब्द हैं। यथार्थअर्थका परिज्ञान करनेका नाम अर्थाचार है, अर्थात् जिन शब्द अथवा वाक्योंका जो अर्थ विहित है वही अर्थ उन शब्द वा वाक्योंका करना अर्थाचार है। विहित अर्थसे प्रतिकूल अर्थ करना अनर्थ है एवं विपरीत मार्ग है। विपरीत अर्थ करनेसे दर्शनमोहनीयकर्मका बंध होता है, क्योंकि किसी वाक्यका अथवा श्लोकका विपरीत अर्थ करना सबसे बड़ा पाप है, वैसा करनेसे अपना और दूसरोंका महान् अकल्याण होता है । इसलिये बुद्धिमान पुरुषोंका कर्तव्य है कि जो आगमके अनुकूल अर्थ है वही ग्रहण करें । यही अर्थाचारनामा ज्ञानका अंग है । शब्द और अर्थ दोनोंके शुद्ध और यथार्थ पठनपाठन करनेका नाम उभयाचार है । यहांपर यह शंका उठायी जा सकती है कि 'शब्दाचार अर्थाचारको जुदाजुदा कह चुके हैं, उभयाचार उनसे भिन्न नहीं है, उन्हीं दोनोंका नाम है; इसलिये दोनोंमें गर्भित हो सकता है, उसका '
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