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पुरुषार्थसिद्धध पाय
[१७१ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm इसलिये पहले सम्यग्ज्ञानको स्वयं अच्छी तरह उपार्जन करना चाहिये, पश्चात् दूसरोंकी हितदृष्टि रखकर उन्हें भी सत् वस्तुस्वरूपका यथार्थ बोध करा देना चाहिये ।
सम्यग्ज्ञानके अष्ट अंग
ग्रंथार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च।। बहुमानेन समन्वितमनिहनवं ज्ञानमाराध्यं ॥३६॥
अन्वयार्थ -- { काले ) अध्ययनकालमें (विनयेन ) विनयपूर्वक (बहुमानेन समान्वितं ) अतिशय सम्मानके साथ अर्थात् आदर भक्ति एवं नमस्कार क्रियाके साथ ( ग्रंथार्थोभयपूर्ण ) ग्रंथ-शब्दसे पूर्ण अर्थसे पूर्ण और शब्द अर्थ दोनोंसे पूर्ण ( सोपधानं च ) धारणासहित अर्थात् शुद्धपाठ सहित ( अनिह्नवं ) बिना किसी बातको छिपाये ( ज्ञानं ) सम्यग्ज्ञान ( आराध्यं ) प्राप्त करना चाहिये ।
विशेषार्थ-स्वाध्याय अथवा शास्त्रोंका अध्ययनकाल जो बताया गया है उसी कालमें स्वाध्याय अथवा अध्ययन करना चाहिये, जो काल ग्रंथोंके पठनपाठनका शास्त्रोंमें निषिद्ध कहा गया है उस कालमें पठनपाठन नहीं करना चाहिये । स्वाध्याय सरीखी उत्तमक्रियाओंका भी क्या काल नियत है, उन्हें हर समय क्यों नहीं कर सकते हैं ? निषिद्धकालमें स्वाध्याय करनेसे अथवा अध्ययन करनेसे क्या हानि होती है ? इत्यादि प्रश्नोंका पहला उत्तर तो यह है कि जिस क्रियाका विधान जिससमय आगममें किया गया है, वह क्रिया उसी कालमें करना चाहिये । यदि आगमविहित मार्ग अथवा विधानकी परवा नहीं की जाय तो फिर उस साध्यरूप क्रियासे भी क्या फल हो सकता है ? शास्त्रों में जिसप्रकार उत्तम चारित्रधारी मुनियोंकी चर्याका समयानुसार विधान बताया गया है-उनकी आहारगमन क्रियाका काल, उनके सामायिकका काल, उनके स्वाध्यायका काल, उनका शयनकाल आदि समस्तकाल नियत हैं उन्हीं कालोंमें वे नियत क्रियाओंको करते हैं, उसीप्रकार स्वाध्याय अथवा अध्ययनकाल भी नियत
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