Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
है । इसलिये गृहस्थाश्रमी आरंभी हिंसासे बच नहीं सकते; परंतु आरंभजनित हिंसाकी कमी अथवा स्वल्पता की जा सकती है, जिन कार्यों को विशेष आरंभके साथ किया जाता है उन्हें थोड़े आरंभसे भी किया जा सकता है, अथवा ऐसे कार्य नहीं करना चाहिये जिनमें विशेष आरंभ होता हो, अथवा जिन आरंभों में अधिक जीवोंके बधकी संभावना हो उन आरंभोंको नहीं करना चाहिये । इसप्रकार गृहस्थाश्रम में रहनेवाले विवेकी पुरुष आरंभी हिंसाका बहुत कुछ बचाव कर सकते हैं । एक बात यह भी आवश्यक है कि किसी भी कार्यके करनेमें सावधानी रखनेकी बड़े प्रयत्न से सम्हाल करनी चाहिये । बिना देखभालके या बिना सोधे- सुधाए, बिना जमीनको देखे झाड़ देनेसे, बिना देखे पानीसे चौका धोनेसे, बिना सोधे अन्नको कूटने पीसनेसे बहुतसी हिंसा हो जाती है, उसका बहुत अधिक पापबंध हो जाता है; इसके लिये प्रयत्नपूर्वक सावधानी से हरएक क्रिया करना चाहिये ।
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चौथी - उद्योगिनी हिंसा वह कहलाती है जो गृहस्थाश्रमी मनुष्योंके उद्योग धंधोंसे होती है। किसी प्रकारके व्यापार में अनाज भरनेमें, मिल खोलने में, दूकान करनेमें, खेती आदि सभी कार्यों का जो उद्योग ( प्रयत्न ) किया जाता है उसमें जो जीवोंकी हिंसा हो जाती है उसे उद्योगिनी हिंसा कहते हैं । इस हिंसामें भी उसी प्रवृत्तिका विचार करना इष्ट है कि जिससे जीववध अति स्वल्प हो, उद्योगी और आरंभी हिंसाओं में जीववधके परिणाम नहीं है किंतु आरंभजनित हिंसा होती है । आरंभ सकषाय भावोंसे किया जाता है इसलिये सकषाय मनवचनकायकी प्रवृत्ति होने से वहां भी हिंसाका लक्षण घटित होता है । इसप्रकार चार प्रकारकी हिंसासे विरक्त होना चाहिये । श्रावक संकल्पी हिंसाका त्यागी तो होता ही है किंतु अन्यान्य हिंसाओंको भी उसे कम कम करना चाहिये । चारों प्रकारकी हिंसाओंके सर्वथा त्यागी संकल्प, विरोध, आरंभ, उद्योगरूप
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