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पुरुषार्थसिद्धय पाय]
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अभाव होता तो हिंसाका त्याग ही कर देता, जिसप्रकार गृहस्थ पुरुष त्रसहिंसाका त्यागी है उसके त्रसहिंसाके किन्चिन्मात्र भी परिणाम नहीं है परन्तु वह स्थावर हिंसाका त्यागी नहीं है इसलिये स्थावर हिंसामें उसकी सरागप्रवृत्ति पायी जाती है उसीप्रकार हिंसासे अविरकजीवके परिणाम सरागरूप रहते ही हैं । यह बात भी अनुभव गम्य है कि किसी वस्तुका बिना त्याग किये परिणामोंमें उस विषयसे पूर्ण उदासीनता एवं परिणामोंमें निराकुलतापूर्ण शांति हो ही नहीं पाती । तीसरी बात यह भी है कि जबतक जिस वस्तुका त्याग नहीं किया जाता है तबतक निमित्त पाकर उसमें प्रवृत्ति हो ही जाती है । इतनाही नहीं किन्तु बिना त्याग किये उस वस्तुकी अंतर्जालसा कभी व्यक्त कभी अव्यक्त बनी ही रहती है और जब उस वस्तुका त्याग कर दिया जाता है तो उसमें कभी प्रवृत्ति तो होती ही नहीं । परिणामोंमें विरकरूप भाव रहनेसे उस वस्तुमें लालसारूप परिणाम भी नहीं होते, इससे यह बात सिद्ध होती है कि हिंसाका त्याग किये बिना भी प्रमत्तयोग रहनेसे हिंसा लगती है और प्रवृत्ति करनेसे तो स्पष्ट हिंसा प्रत्यक्ष ही है इसलिये प्रमत्तयोगमें नियमसे प्राणघात होता है ।
___हिंसाके निमित्तोंको हटाना चाहिये सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबंधना भवति पुंसः । हिंसायतननिवृत्तिःपरिणामविशद्धयेतदपि कार्या॥४६॥
अन्वयार्थ - ( खलु ) निश्चय करके (पुसः ) आत्माके ( सूक्ष्मा अपि हिंसा ) सूक्ष्म भी हिंसा ( परवस्तुनिबंधना ) जिसमें परवस्तु कारण हो ऐसी ( न भवति ) नहीं होती है । ( तदपि) तो भी ( परिणामविशुद्धये ) परिणामोंकी विशुद्धिकेलिये ( हिंसायतननिवृत्तिः ) हिंसाके आयतनों-हिंसाके निमित्त कारणोंका त्याग ( कार्या) करना चाहिये। ___ विशेषार्थ—इस श्लोकद्वारा यह बात प्रगट की गई है कि वास्तवमें हिंसा परिणामोंके अधीन है, परिणामोंसे ही होती है, परिणामोंमें ही होती है, वाह्यपदार्थों में न तो हिंसा है और न वे हिंसाके कारण ही हैं, यदि बाह्य
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