Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय !
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डालता है, [पश्चात ] पीछे [प्राण्यंतराणां ] दूसरे जीवोंकी [हिंसा] हिंसा [ जायते न वा] हो अथवा नहीं हो। ___विशेषार्थ- सकषायरूप प्रमाद-अवस्थामें बिना दूसरेके घातके ही हिंसा बतलाई गई है। इस सम्बन्धमें यह शंका हो सकती है कि 'बिना प्राणघातके हिंसा कैसी ?' इसीके उत्तरमें यह श्लोक कहा गया है कि-जो जीव कषाय करता है वह पहले अपने स्वरूपको नष्ट कर लेता है, क्योंकि कषाय करना आत्माका धर्म नहीं है। यदि कषाय करना आत्माका धर्म हो तो उन्नतिमें उत्तरोत्तर कषायभावोंकी भी उन्नति होना चाहिये, परन्तु होता इसके सर्वथा विपरीत है । ज्यों ज्यों आत्मा ध्यानादि क्रियाओंद्वारा उन्नत अवस्थामें पहुंचता जाता है, त्यों त्यों उसके शांति क्षमा दया आदि सद्गुण वृद्धिंगत होते जाते हैं और क्रोध मान माया लोभादि विभावपरिणाम क्षीण होते जाते हैं। जहां आत्मा सर्वथा स्वस्वरूपमें पहुंचता है वहां आत्मासे क्रोधादि विकार सर्वथा दूर होते जाते हैं । इससे भली भांति सिद्ध होता हैं कि क्रोधादिभाव आत्माका निजरूप नहीं है। क्रोधादि विकार परकृत है, पुद्गलके निमित्तसे होनेवाला परिणाम है। यदि वह जीवका निजभाव होता तो ज्ञानके समान उसे भी सदा कमती बढ़ती रूपमें रहना अवश्य चाहिये, परन्तु यह बात प्रत्यक्ष-वाधित है । क्रोधादि परिणाम प्रतिसमय जागृत नहीं रहते हैं किन्तु निमित्त पाकर उदित होते रहते हैं । कोई कोई संसारसे उदासीन ऐसे भी त्यागी एवं योगी पुरुष हैं जिनके कषायभाव अत्यन्त मंद हो चुके हैं, किन्हीं योगियोंके उनका अभाव ही हो चुका है । इससे भली भांति सिद्ध है कि क्रोधादि परिणाम आत्माका विकाररूप परिणाम है, उसका स्वभावरूप परिणाम क्षमादिक भाव है । कषाय करने वाला जीव पहले तो अपना ही घात कर डालता है, ज्यों ही उसके कषायभाव जागृत हुआ त्यों ही उसके निजगुण क्षमा मार्दव
आर्जव आदि नष्ट हो जाते हैं । इसलिये जिसप्रकार हाथसे अग्नि उठाकर Jain Education Inter24nal
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