Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[ १८७
किसीके प्रति कटुवचन भी कह दिये, तो उन वचनोंसे सुननेघालेको जो आघात पहुंचेगा उस भावहिंसाका भागीदार वह कटुभाषी नहीं हो सकता जो अच्छा अभिप्राय रखता है। इसलिये केवल मनवचनकायकी प्रवृत्ति हिंसाका कारण नहीं है, किंतु सकषाय-प्रवृत्ति ही हिंसाका कारण है, इसीलिये 'कषाययोगात्' यह हेतुवाक्य दिया गया है। जहांपर कषायपूर्वक योग है वहां चाहे भावहिंसा हो चाहे द्रव्यहिंसा हो, दोनों ही हिंसामें गर्मित हैं, अथवा दूसरे किसी जीवकी हिंसा नहीं भी हो अपने भावोंमें ही सकषाय परिणाम हैं तो अपनी ही हिंसा है।
__ हिंसा चार भेदोंमें मूलरूपसे बटी हुई है-(१) संकल्पिनी, (२) विरोधिनी, (३) आरंभिणी और (४) उद्योगिनी । इन चार भेदोंमें सबसे बड़ी
और सबसे प्रथम त्याज्य संकल्पसे होनेवाली हिंसा है; जहांपर भावोंमें यह संकल्प कर लिया जाता है कि मैं इस जीवको मार डालू अथवा इसे दुःख पहुचाऊं, वहांपर हिंसा करनेका अभिप्राय रहनेसे उसे संकल्पसे होनेवाली हिंसा कहते हैं; अर्थात् हिंसाके अभिप्रायसे ( इरादेसे) की गई हिंसाको संकल्पिनी हिंसा कहते हैं । जो जीव संकल्पिनी हिंसा करनेके लिये उद्यमी होता है उसके द्वारा दूसरे जीवका घात हो अथवा न हो, परन्तु उसे तो हिंसासे होनेवाला पापबंध हो ही जाता है । यही बात लोकनीतिमें भी पायी जाती है, जो कोई किसीको मारनेके लिये तलवार या लाठीका प्रयोग करता है उससे वह नहीं भी मारा जाय तो भी प्रयोग करनेवालेको सरकार उसी अपराधीमें शामिल करती है जोकि मारनेवाला है। यह संकल्पी हिंसा तीवकषायके उदयसे होती है। जबकि आत्माका स्वभाव जीवोंपर दया करनेका स्वाभाविक है तब उसके जीवबध करनेके भावोंका होना महान् क्रूरताका सूचक है । 'मैं इसे मारू यह भाव बिना घातक क्रूर परिणामोंके कभी नहीं उत्पन्न हो सकता। इसलिये विवेकी पुरुषोंका कर्तव्य है कि सबसे पहले इसप्रकारकी संकल्पी हिंसाका सर्वथा त्याग कर दें।
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