________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[ १६६
सत्का लक्षण उत्पाद-व्यय-धौव्यस्वरूप अनेकांत है, इसलिये तत्त्वस्वरूपका बोध करानेके लिये यहांपर सत् पद भी दिया गया है, और अनेकांत पद भी दिया गया है । दूसरा अर्थ यह होता है कि-जो अनेकांत है वह सत् समीचीन है। सर्वथा अनेकांत तथा कथंचित् अनेकांत ऐसे अनेकांतके भी दो भेद हैं, उनमें सर्वथा अनेकांत भी वस्तुस्वरूप नहीं है, कथंचित अनेकांत वस्तुस्वरूप है अर्थात् वस्तु कथंचित अनेकांत है, कथंचित् एकांत है । कथंचित् एकांत भी समीचीन है, सर्वथा एकांत भी समीचीन नहीं है । इसी अर्थको स्वामी समंतभद्राचार्यने “अनेकांतोप्यनेकांतः प्रमाणनयसाधनः। अनेकांतः प्रमाणात्ते तदेकांतोर्पितान्नयात् ।” इस कारिकाद्वारा प्रगट किया है। इसका अभिप्राय यही है कि प्रमाण
और नयोंकी सिद्धिसे अनेकांत भी अनेकांत है, प्रमाणसे अनेकांत है, तथा विवक्षितनयसे वही एकांत है । अनेकांतस्वरूप तत्वोंका अनुमनन करना ही सम्यग्ज्ञान है । वह सम्यग्ज्ञान आत्माका निजस्वरूप है। क्योंकि पदार्थों का सत्स्वरूप जानना ही सम्यग्ज्ञान है, तथा सम्यग्ज्ञान आत्माके निजरूपको छोड़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है। जिस ज्ञानमें संशय-विपर्यय-अनध्यवसायभाव रहते हैं, वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है । संशयका लक्षण यह है कि जो ज्ञान एक साथ एक पदार्थका अनेक कोटियोंको ग्रहण करे वह संशयज्ञान कहलाता है। जैसे सीपको देखकर यह ज्ञान होना कि यह सीप है या चांदी है ? यहांपर ज्ञानका निश्चय न तो सीपमें ही है और न चांदीमें ही है; दोनों कोटियोंमें बराबर है। ऐसे संशयकोटिमें आये हुए ज्ञानको संशयज्ञान कहते हैं । जो ज्ञान पदार्थके स्वरूपसे विपरीत कोटिको निश्चयरूपसे ग्रहण करे उसे विपर्ययज्ञान कहते हैं । जैसे सीपको देखकर यह निश्चय हो जाना कि यह चांदी ही है । यहां पर वस्तुस्वरूप सीप है, परन्तु सीपसे सर्वथा विपरीत चांदीका ज्ञान सीपमें निश्चयात्मक हुआ है, इसलिये वह विपर्ययज्ञान कहलाता है । विपर्ययमें विपरीत कोटिका
२२ Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org