________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
। १८३
NIM
रूप त्याग है ( तस्यां ) उसमें (निरतः ) लवलीन रहनेवाला ( उपासकः ) श्रावक ( भवति ) होता है।
विशेषार्थ - सर्वथा त्यागरूप महाव्रतके स्वामी मुनिमहाराज होते हैं और एकदेश त्यागरूप अणुव्रतका स्वामी श्रावक-गृहस्थ होता है। जहां रंचमात्र भी आरंभ और परिग्रह है वहां मोक्षका साक्षात् साधनभूत मुनि पद नहीं पाला जा सकता, गृहस्थाश्रममें रहनेवाला पुरुष आरंभपरिग्रहके संबंधसे सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता, इसलिये आरंभपरिग्रहके सर्वथा त्यागी वे मुनिमहाराज होते हैं जो नग्नदिगम्बर बनकर वीतराग-शुद्धोपयोग पूर्वक त्रस स्थावरकी रक्षा करते हुए जंगलमें ध्यान लगाते हैं । गृहस्थाश्रममें रहनेवाला श्रावक त्रसहिंसाका त्यागी है परन्तु आरंभी उद्योगी विरोधी त्रसहिंसासे विरक्त नहीं हो पाता और स्थावर हिंसासे तो बच ही नहीं सकता । हां, अप्रोजनीभूत अनर्थदण्डस्वरूप स्थावरहिंसाको वह बचाता है परंतु फिर भी स्थावर हिंसामें लिप्त रहता है इसलिये वह एकदेश त्यागरूप चारित्रका धारक है । सर्वथात्यागी श्रीमुनि समयसारभूत अर्थात् शुद्ध निजस्वरूपके रसास्वादन करनेवाले बन जाते हैं और एकदेश त्यागी श्रावक उस निजात्मानंदी मुनिवृत्तिका उपासक-आराधना करनेवाला बन जाता हैं।
हिंसाका व्यापक स्वरूप आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात् सर्वमेव हिंसैतत् ।
अमृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥४२॥ अन्वयार्थ-(आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात् ) आत्माके परिणामोंकी हिंसा होनेके कारण से (एतत् सर्व एव ) यह सब ही ( हिंसा ) हिंसा है। ( अनृतवचनादिकेवलं ) असत्य वचनादि केवल ( शिष्यवोधाय ) शिष्योंको बोध करनेके लिये ( उदाहृतं ) कहे गये हैं।
विशेषार्थ-आत्माके परिणामोंका पीड़ा जाना ही हिंसा है । जिस मनवचनकायसे अपने अथवा परके अथवा दोनोंके परिणामोंमें आघात पहुंचे,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org