Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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जुदा ग्रहण क्यों किया गया है ?' इसके उत्तर में यह बात समझलेना चाहिये कि कहीं केवल अर्थाचारसे ही काम निकलता है; जैसे श्रीशिवभूतिमुनिका शरीरसे आत्मा तुष-माप ( भूसीसे उर्द ) के समान जुदा है, इस भावज्ञानसे ही कल्याण हो गया । कहीं पर केवल शब्द से ही ज्ञानकी उपासना की जाती है; जैसे दशाध्याय सूत्र और भक्कामर, कल्याणमंदिर, विषापहार आदि स्तोत्रोंका मूलपाठ पढ़ने और सुनने से भी कल्याण होता है | यहां पर केवल शब्दशास्त्र में ही निष्ठा पाई जाती है । उपर्युक्त दोनों आचारोंमें उभयाचार सम्मिलित नहीं होता, इसलिये एक साथ दोनोंकी ( अर्थाचार और शब्दा चारकी ) पूर्ति के लिये उभयाचारका जुदा ग्रहण किया गया है । शब्दाचार अर्थाचार तथा उभयाचार इनकी शुद्धता रखना ही जिनवाणीका मूल विनय है । इनकी अशुद्धतामें जीवोंकी बड़ी भारी हानि हो सकती है । हां, जहांपर हृदय में जिनवाणी अथवा शास्त्रोंपर परमभक्ति है वहां स्वल्पबोधवश कुछ वैपरीत्य होनेपर भी पापबंध अथवा अकल्याण नहीं होता । कारण भावोंसे ही पापबंध होता है, भावों में जहांपर वैपरीत्यबुद्धिका समावेश है वहां थोड़ा भी वैपरीत्य महान्पापबंधका कारण है । दृष्टांतके लिये अंजनचोरको ले लीजिये अपने जीवनकी समाप्ति समझकर उसने धर्मनिष्ठ सेठके वचनोंपर दृढ़ विश्वास करके "ताणं ताणं सेठवचन परमाणं” इस अशुद्ध णमोकार मंत्रके पढ़नेसे ही कल्याण प्राप्त किया । और राजा वसुने बुद्धिपूर्वक अजका 'जौ' अर्थ न करके विपरीत अर्थ 'बकरा' (छाग) करनेसे नरक प्राप्त किया । इन दृष्टांतोंसे यह बात स्पष्ट होती है कि बुद्धिपूर्वक भावोंसे एक शब्दका भी विपरीत अर्थ होनेसे कितना भारी पाप होता है कि जिसके फलसे नरक जाना पड़ता है और शुद्ध अंतःकरण तथा दृदृश्रद्धामें कितना तत्त्व भरा हुआ है कि जिसके फलसे शब्दांतर होनेपर भी कल्याण लाभ हुआ । बुद्धिमान पुरुषोंका
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
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