Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
७८ ]
[पुरुषार्थसिद्धय पाय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm सन्तुष्ट होता हुआ (प्रतारितः ) ठगाया ( भवति ) जाता है।
विशेषार्थ- जैनग्रन्थोंके मनन करनेसे विदित होता है कि जिससमय किसी पुरुषको किसी निमित्तसे अत्यंत तीव्र वैराग्यकी मात्रा जागृत हो उठती है, उससमय आचार्य उसको सामर्थ्यका परिज्ञान करके उसे तत्काल कमण्डलु और पिच्छिका दे देते हैं । यदि कमंडलु और पिच्छिका देनेमें वे विलम्ब करें तो जिस पुरुषके किसी निमित्तको पाकर वैराग्यपरिणाम उत्कट हो उठे हैं, वे परिणाम फिर उसके वैसे नहीं रह सकते । एकबार संयम धारण करा दिया जाय तो फिर वह आत्मा पदस्थके अनुसार महाव्रतोंका पालन करता ही है। इसीलिये आत्माओंके सुधारकी पूर्ण भावना रखनेवाले आचार्य लोकोपकारकी दृष्टिसे अपने संघमें कमंडलु और पिच्छिका भी अधिक रखते हैं। काललब्धिका आना और साथ ही साधनों की प्राप्ति होना, उस आत्माके सुधारका मार्ग है । यहांपर शंका हो सकती है कि अपने कार्यमें आनेवाले पीछी कमंडलुसे अधिक पीछीकमंडलुका रखना आचार्यों के लिये उचित है क्या ? क्या वह परिग्रहमें शामिल नहीं है?' उत्तर-नहीं है । जिसप्रकार अपने कार्यमें आनेवाले पीछीकमंडलु परिग्रहमें नहीं शामिल हैं, क्योंकि उनसे संयमका पालन किया जाता है । इंद्रियोंके विषय एवं शरीरके आराम देनेवाले पदार्थ परिग्रहमें परिगणित किये जाते हैं । जो केवल संयमके साधक हैं, वे परिग्रह नहीं कहे जा सकते । हां, यदि उनमें भी मूर्छाबुद्धि मुनियोंकी हो तो पीछी कमंडलु भी परिग्रहमें समझना चाहिये । परंतु मुनियोंकी उनमें तनिक भी मूळ ( ममत्वभाव ) नहीं है । यदि उन्हें कोई ले जाना चाहे तो भले ही ले जाओ, उन्हें उनका रंचमात्र भी खेद नहीं होता; इसलिये जैसे अपने कार्यमें आनेवाले पीछी कमंडलु परिग्रहमें शामिल नहीं हैं, उसीप्रकार दूसरे पुरुषोंको दीक्षा देनेके लिये लोकोपकार-दृष्टिसे रक्खे हुए पीछी-कमंडलु भी परिग्रहमें शामिल नहीं है । उनसे भी तो संयमकी ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org