Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय, पाय
इसलिये वह किंचिन्मात्र भी अन्यथा नहीं हो सकता है । वस्तुरूप वही अन्यथा होता है, जिसका वक्ता अल्पज्ञ और रागी -द्व ेषी होता है । समस्त वस्तुओंका पूर्णज्ञान न होनेसे, बिना किसीप्रकारका रागद्वेष होनेपर भी, पदार्थका स्वरूप विपरीत कहा जा सकता है अथवा पदार्थका पूरा ज्ञान होनेपर भी रागइ षसे अन्यथा कहा जा सकता है जहां रागद्वेष भी नहीं है तथा समस्त पदार्थो का परिपूर्ण ज्ञान है अर्थात् जहां सर्वज्ञता भी हैं और वीतरागता भी है, वहां कभी पदार्थस्वरूपमें विपरीतता नहीं आती । जैनधर्मने जिन पदार्थों का विवेचन किया है, वे सभी सर्वज्ञदेव एवं वीतरागदेव श्रीअर्हतदेवने कहे हैं, उनसे सुनकर उनके साक्षात् शिष्यस्थानीय श्रीगणधरदेवने उन्हें प्रतिपादन किया है, उनसे उनके शिष्य श्री प्राचीन आचार्यों ने उन समस्त पदार्थों का ज्योंका त्यों स्वरूप विवेचन किया है; उनसे उनके शिष्य पीछे होनेवाले आचायों ने निरूपण किया है । समस्त आचार्यों की रचना पूर्वाचार्यों की प्रमाणता लिये हुए है, निजकी स्वतंत्रविवेचनाका प्रत्येक आचार्यने अपनी कृतिमें निषेध किया है । आजतकका जैन - इतिहास देखने से यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि कोई आचार्य ऐसे नहीं हुए हैं जिन्होंने पूर्वाचार्यों की कृतिको प्रमाणभूत एवं महत्वास्पद न स्वीकार किया हो । महान् से महान् आचार्यों में प्रमुख आचार्यको कृतिको देखनेसे भी यही बात मिलेगी कि उन्होंने अपनी रचनाको पूर्वाचार्यों की रचनाकी प्रमाणतासे ही प्रमाण बतलाया है । श्री ' प्रमेयरत्नमाला' के रचयिता श्री अनंतवीर्य आचार्यने कहा है- " प्रभेदुवचनोदारचंद्रिकाप्रसरे सति । मादृशाः क्व नु गण्यंते ज्योतिरिंगणसन्निभाः ॥” अर्थात् श्री' प्रमेयक मलमार्तण्ड' के कर्ता श्रीप्रभाचंद्राचार्यकी वचनरूपी उदार एवं विशाल चांदनी के फैलने पर हम सरीखे जुगनू ( पटवीजना) कीसी चमक वाले पुरुष किस गणना में सामिल हो सकते हैं । इस श्लोक को देखने से यह पता चलता है कि जैनाचार्यों ने पूर्वाचार्यों को कितनी पूज्यता प्रदान की है ।
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