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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
जाते हैं । इस सांसारिक सुखमें एक बात और भी विचारनेयोग्य है, वह यह है कि यह जितना भी सुख है सब दुःखका कारण है, सुख भोगते हुए आरंभ-परिग्रहकी लालसा रहती है, बिना आरंभपरिग्रहके सांसारिक सुख भोगनेका कोई द्वार नहीं है, और जितना आरंभपरिग्रह है वह सव पापबीज है अर्थात् उससे पापका बन्ध होता है । इसलिये ऐसे कर्माधीन दुःखमिश्रित एवं दुःखकारण दुःखस्वरूप सांसारिक सुखमें सम्यग्दृष्टिकी रुचि नहीं होती। वह उन सुखोंको भोगता हुआ भी उनसे उदास है, कारण वह वस्तुस्वरूप को पहचान चुका है तथा असली सुखका स्वादी बन चुका है। इसीप्रकार जब सम्यग्दृष्टि वस्तुस्वरूपको पहचान चुका है, तो उसकी प्रवृत्ति उन एकांतवाद-दूषित परसमयोंमें (जैनधर्मको छोड़कर दूसरे दर्शनोंमें ) नहीं होती है।
निविचिकित्सा अंगका लक्षण
क्षुत्तष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया॥ २५॥
अन्वयार्थ-( क्षुत्तष्णाशीतोष्ण प्रभृतिषु ) क्षुधा,तषा, शीत, उष्ण इत्यादि (नानाविधेषु । अनेक प्रकारवाले (भावेषु ) पदार्थो में ( पुरीषादिषु ) मल आदिक (द्रव्येषु ) द्रव्यों में ( विचि. कित्सा ) घृणा ( नैव ) नहीं ( करणीया ) करनी चाहिये ।।
विशेषार्थ-विशेष रागद्वष उसी वस्तु में होता है जिसमें अपनी इष्ट-अनिष्ट बुद्धि रहती है, परन्त संसारमें कोई पदार्थ वास्तवमें इष्टरूप अथवा अनिष्टरूप नहीं है। यदि इष्ट-अनिष्ट स्वरूप वास्तवमें कोई पदार्थ होता, तो वह सबके लिये एकसा होता । जो इष्टरूप होता वह सबोंके लिये इष्टरूप होता, जो अनिष्टरूप होता वह सबोंके लिये अनिष्टरूप होता । परन्तु जो पदार्थ एकके लिये इष्टरूप है वही दूसरेके लिये अनिष्टरूप है, अथवा जो एकके लिये अनिष्टरूप है वही दूसरोंके लिये इष्टरूप है। इतना ही नहीं किंतु जो एक समयमें अपने लिये इष्टरूप है, वही दूसरे समयमें अपने लिये
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