Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
सम्यग्दृष्टि है । यहांपर भोगसेवनादिक करते रहनेपर भी आर्षवचनोंपर दृढ़ श्रद्धा ही सम्यग्दृष्किा प्रधान लक्षण बतलाया गया है, और उसीको कारणमें कार्यकी विवक्षा रखकर आत्मस्वरूप कहा गया है।
निःकांक्षित अंगका लक्षण इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । एकांतवाददूषितपरसमयानपि च नाकांक्षेत् ॥२४॥ अन्वयार्थ-( इह ) इस ( जन्मनि ) जन्मसे ( विभवादीन् । विभव आदि सम्पदाओंको, ( अमुत्र ) परलोकमें ( चक्रित्वकेशवत्वादीन् ) चक्रवर्ती नारायण आदि पदोंको ( च ) और ( एकांतवाददूपित परसमयान्अपि ) एकांतवाद होनेसे सदोष दूसरे मतोंको भी (न ) नहीं ( आकांक्षेत् ) चाहे ।
विशेपार्थ- सम्यग्दृष्टि जीव सांसारिक समस्त वस्तुओंकी साभिलाष ( रुचिपूर्वक ) चाहना नहीं करता है । वह पुण्योदयसे मिली हुई वस्तुओं का भोग भी भोगता है, फिर भी वस्तुस्वभावसे अनुभवित होनेसे उन भोगादि समस्त ऐश्वर्य सामग्रियोंको वह कर्मजनित उपाधि समझता है, उन्हें आत्मीय वस्तु नहीं समझता । इसीलिये उनमें वह अनुराग नहीं करता है, उन्हें भोगते हुए भी हेय ( त्यागनेयोग्य ) समझता है । इसीलिए उसकी सांसारिक समस्त वासनाओंमें चाहना नहीं रहती, वह विचार करता है कि यह ऐश्वर्य तथा ये चक्रवर्ती आदि पद कर्मके अधीन हैं; पुण्योदय तीव होगा तो मिल जायेंगे, नहीं तो नहीं मिलेंगे । आज सब ऐश्वर्य दृष्टिगत हो रहे हैं, कल पापोदय होनेसे सब विलीन हो जाते हैं । जो आज राजा बनकर खूब ऐश्वर्यको भोगता है वह कल रंक बनकर दूसरोंसे भिक्षा मांगता है। इसलिये ये सव सांसारिक सम्पत्तियां कर्मों के वश हैं । सांसारिक सुख सम्पत्तियोंके प्राप्त होनेपर भी बीच बीचमें अनेक दु:ख आते जाते हैं । ऐसा भी नहीं है कि जबतक कर्मोदयके वश सुख मिला हुआ है, तबतक तो बराबर स्थिर रहे; किंतु सो भी नहीं रहता, बीच बीचमें अनेक दुःख आते
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