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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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समझाकर उसी ग्रहण किये हुए सुमार्गपर दृढ़ कर देना अर्थात उसे विचलित न होने देना इसीका नाम स्थितिकरण है । यह परस्थितिकरण कहा गया है। स्वस्थितिकरण भी इसीप्रकार कर लेना चाहिये । यदि काम क्रोध मद आदिके आवेगमें अपना चारित्र या संयम शिथिल होता हुआ प्रतीत हो, तो शास्त्रोंका लक्ष्य रखकर अपने आपको भी तुरन्त ही सुमार्गमें दृढ़ कर लेना चाहिये।
___ यह बात एक साधारण है कि जीवोंके पूर्व बंधे हुए कर्म कभी तीनरूपसे कभी मंदरूपसे उदयमें आते रहते हैं । जिससमय कर्मों का तीव्र उदय होता है उससमय जीव सम्यग्दर्शन एवं सम्यकचारित्रसे च्युत होने लगता है अथवा अंशांशोंकी अपेक्षा उनसे शिथिल होने लगता है । उसीसमय शास्त्राभ्यास तथा उपदेशसे अपनेको और परको उनमें-सम्यग्दर्शन-चारित्रमें दृढ़ कर देना चाहिये । इतना विशेष है कि जहांपर दूसरेके आत्माको सुधार करनेकी भावना हो वहां किसीप्रकारका प्रलोभन अथवा स्वार्थवासना न होनी चाहिये; किंतु केवल सदनुग्रहबुद्धिसे सदुपदेश एवं आदेश करना चाहिये। जहांपर परिणामोंमें किसी प्रयोजन तथा प्रत्युपकारकी वासना रहती है, वैसी आत्माओंसे दूसरोंका सुधार होना बहुत कठिन है। पूर्णसुधार तथा सच्चासुधार वही आत्मा कर सकता है जो निस्पृहवृत्तिवाला है । एक बात यह भी नितांत आवश्यक है किधर्मोपदेश देकर दूसरोंकी आत्माओंका वहींतक सुधार करना उचित है जहांतक कि अपने व्रत संयममें बाधा नहीं आती है, अपने ब्रत संयमके नाशकी परवा न करके जो दूसरोंके सुधारमें तत्पर होते हैं वे न दूसरोंका ही सुधार कर सकते हैं और न अपना ही सुधार कर सकते हैं । जो अपने चारित्रका घात करके दूसरोंके सुधारमें अथवा पर-रक्षणमें प्रवृत्त होते हैं, उनका दूसरों पर कोई महत्त्वयुक्त प्रभाव नहीं पड़ सकता । क्योंकि वे अपनी आदर्शता तो खो चुके, वैसी अवस्थामें उनसे दूसरे लोग उत्तम
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