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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[ १५५ ज्ञानमें, ध्यानमें, तपमें, शुभाचारमें शैथिल्य नहीं आने देना, प्रत्युत धर्म में प्रेमपूर्वक सावधान रहना; यही स्वात्मवात्सल्य है । अर्थात् अपने निजगुणों में प्रेम करना, उनकी उपासनामें, वृद्धि में, रक्षणमें प्रमाद नहीं करना; यही स्वात्मवात्सल्य है तथा पंचपरमेष्ठियोंमें, जिनमंदिरोंमें,मुनिअर्जिका श्रावक श्राविका इन चारप्रकारके संघमें, जिनवाणीमें स्वामीके प्रति भृत्यकी तरह दासता ( सेवकपना ) अंगीकार करना; यह भी स्वात्मवात्सल्यमें गर्भित है । यदि ऊपर कहेहुए परमपूज्य पदार्थों मेंसे किसीपर कोई उपसर्ग अथवा
आपत्ति आती हो, तो उसके दूर करने के लिये सदा कटिवद्ध रहना चाहिये। जिसप्रकार भी उनपर आईहुई बाधाको दूर कर सकनेकी योग्यता हो उसीप्रकार जुटकर उसके दूर करनेमें प्रयत्नशील होना चाहिये । यदि बलकी आवश्यकता हो तो बलपूर्वक प्रयोग करना चाहिये, मंत्रकी आवश्यकता हो तो मंत्रका प्रयोग करना चाहिये, धनकी आवश्यकता हो तो धन भी खर्च करना चाहिये । परन्तु थोड़ी भी सामर्थ रहनेपर जिनविंब एवं जिनमंदिर आदि पर आईहुई आपत्तिको देखते रहना या सुनते रहना, परंतु उसे हटानेमें यत्नशील न होना, यह धर्मप्रेमका सूचक नहीं है । जिसकी आत्मामें धार्मिकप्रेम एवं श्रद्धा है वह जिनविंब जिनमन्दिर चारसंघ आदि किसी भी धर्मतत्वपर उपस्थित होनेवाली बाधाको कभी सहन नहीं कर सकता; यही वात्सल्यअंगका लक्षण है । इसीप्रकार जहां जीवोंकी हिंसा होती हो वहां पहुंचकर, उपदेश देकर, समझाकर, प्रभाव दिखाकर, द्रव्य खर्चकर, जिसप्रकार हो उसीप्रकार प्रयत्न करके जीवोंकी हिंसा रोकना चाहिये । जीवकी रक्षाके समान दूसरा धर्म नहीं है। एक आत्माकी रक्षा कर लेना महान् पुण्यवंधका कारण है । समस्त जीवोंपर प्रेम तथा दयाभाव रखना, यह भी वात्सल्य है ।
आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥३०॥
प्रभावना अंगका लक्षण
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