Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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जिनधर्मकी पद्धति और युक्तियों के द्वारा ( यत्नेन ) भलेप्रकार ( निरूप्य ) विचार करके ( सम्यग्ज्ञानं ) सम्यग्ज्ञान ( समुपास्यं ) आदरके साथ प्राप्त करना चाहिये । __ विशेषार्थ- सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेसे आत्मा मोक्षमार्ग पर आजाता है । परन्तु आत्माका हित करनेके लिये सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि करना चाहिये। सम्यग्ज्ञानकी वृद्धिके लिये यह उपाय है कि पदार्थों को प्रमाण और नयोंके द्वारा निर्णीत करना चाहिये । जिसप्रकार कांटेसे वस्तुके परिमाण ( वजन ) का ठीक ठीक बोध हो जाता है, उसीप्रकार प्रमाण और नयोंके द्वारा वस्तुके स्वरूपका ठीकठीक बोध हो जाता है। सोने तथा जवाहरातका ठीक वजन करानेके लिये उन्हें धर्मकांटे पर तोलते हैं, उसीप्रकार कुमति ज्ञानियों-द्वारा अथवा नाना मतावलंबियोंद्वारा विवादकोटिमें लाये जानेवाले पदार्थों को प्रमाण-नयरूपी धर्मकांटेपर तौलनेसे उनका सत्स्वरूप ठीक ठीक जाना जाता है। प्रमाणसे अनंत धर्मात्मक वस्तुका एकसाथ बोध किया जाता है, नयसे प्रत्येक धर्मका विवक्षावश जुदा जुदा बोध होता है । प्रमाण वस्तुके सर्वाशको ग्रहण करता है, नय उसके एकदेशको ग्रहण करता है । नयोंके अनेक भेद हैं, जिनका विवेचन पहले संक्षिप्त रूपमें किया 'जाचुका है । प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद हैं । प्रत्यक्षप्रमाण भी इन्द्रियप्रत्यक्ष
और अतींद्रियप्रत्यक्ष, ऐसे दो भेदवाला है । इन्द्रियोंसे होनेवाले प्रत्यक्षको इन्द्रिय-प्रत्यक्ष कहते हैं। वास्तवमें तो इंद्रियप्रत्यक्ष ज्ञान परोक्षज्ञान ही है, परन्तु लोकमें ऐसी प्रसिद्धि है कि 'मैंने अपनी आंखोंसे देखा है, मैंने अपने कानोंसे सुना है' इत्यादि, इस व्यवहारके कारण उपचारसे उसे प्रत्यक्षके भेदमें कहा गया है । जो ज्ञान इंद्रियोंकी तथा मनकी सहायता के बिना स्वयं आत्मासे पदार्थों का साक्षात्कार करता हो, उसे अतींद्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं । अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान, ये तीनों
१. इसी ग्रन्थके प्रारम्भमें पृष्ठ १८ से २८ तक, नयका वर्णन किया गया है, वहीं देखना चाहिए ।
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