Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
१६० ]
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
महाराजने विभूतिदर्शनको भी सम्यक्त्व-प्राप्तिमें कारण बतलाया है । इसके सिवा उदारता-पूर्वक दान देकर बड़ी बड़ी विशाल पाठशालाएँ, स्वाध्यायशालाएँ, औषधशालाएँ, धर्मशालाएँ आदि परउपकारक कार्य कराने चाहिये । ऐसे कार्यों से जगत्में कीर्ति स्तम्भ स्थिर हो जाता है । तथा तीव्र पुण्यबंध होता है । विद्याका चमत्कार दिखाकर भी जगत्में जैनधर्मका अतिशय प्रगट करना चाहिये । इस प्रभावना अंगसे विधर्मियोंपर जैनधर्मका अच्छा प्रभाव पड़ता है। उत्तमप्रभावका पड़नाही धर्मप्रसारका चिह्न है । इसलिये जगत्में जैनधर्मका प्रसार करनेके लिये हर प्रकारसे उसकी प्रभावना दिखलाना चाहिये । इसप्रकार ये ऊपर कहे हुए सम्यग्दर्शनके अष्ट अंग सम्यग्दृष्टिको पालन करना चाहिये । ये आठों ही अंग अपना और परका कल्याण करनेके लिये प्रधान कारण हैं। इसप्रकार श्रीअमृतचंद्रसूरि-विरचित पुरुषार्थसिद्धयु पाय' द्वितीयनाम जिनप्रवचनरहस्यकोषकी ( वादीभकेशरी, न्यायालङ्कार ) पं० मक्खनलोलशास्त्रीकृत भव्यप्रबोधिनी नामक
हिन्दी भाषाटीका में सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला
प्रमम अधिकार समाप्त हुआ ।
सम्यग्ज्ञानका विवेचन इत्याश्रितसम्यक्त्वैः सम्यग्ज्ञानं निरूप्य यत्नेन।
आम्नाययुक्तियोगैःसमुपास्यं नित्यमात्महितैः॥ ३१॥ अन्वयार्थ-( इति ) इसप्रकार ( आश्रितसम्यक्त्वः) सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले उन पुरुषोंको, जो ( नित्यं ) सदा ( आत्महितैः ) आत्माका हित चाहते हैं, ( आम्नाययुक्तियोगः ) नगरके बीचसे बड़ी विभूति और गाजे-बाजेके साथ निकलती है, उससमय जैनधर्मका पूर्ण गौरव प्रगट होता है। इसके सिवा प्रतिष्ठिादि कार्यों में जो पञ्चकल्याणक विधियां हैं, उनसे इकट्ठे होनेवाले समस्त स्त्रीपुरुषोंके भावोंमें विशुद्धता और भक्तिरसका स्रोत बहने लगता है। स्थापना निक्षेपसे ही मोक्षमार्गकी सिद्धि होती है और निश्चयतत्त्वकी प्राप्ति भी उसी स्थापनातत्त्वसे होती है; गर्भ जन्म आदि कल्याणोंकी कल्पनाएं देखनेवालोंके हृदयमें उस समयवर्ती साक्षात् तत्त्वका भाव उत्पन्न कर देती हैं, उन्हीं भावोंकी निर्मलतासे उपस्थित सभी जन पुण्यबंध करते हैं। इसलिये प्रतिष्ठादि कार्य ऐसे कार्य हैं, जो जीवोंके सूधारमें पूर्ण कारण हैं उनका होना भी परमावश्यकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org