________________
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
मार्ग कहांतक ग्रहण कर सकते हैं ? इसलिये जहांतक अपने सम्यक्त्व और चारित्रकी रक्षा बनी रहै वहांतक पररक्षण समीचीन एवं आवश्यक है; जहां स्वरक्षण नहीं है वहां पररक्षण भी अशक्य है, क्योंकि पररक्षण भी आत्मरक्षण-पूर्वक ही किया जा सकता है। जिस व्रतीके तीन बार सामायिक करनेका नियम है, सचित्तका त्याग है, रात्रिभोजनका त्याग है, वह यदि परोपदेशकी धुन में तन्मग्न होकर आवश्यकता समझकर सामायिक करना बन्द कर दे, सचित्त फलफूल भक्षण करने लग जाय अथवा दिनमें उपदेश-कार्य से अवकाश न मिलनेपर रात्रिभोजन करने लग जाय, तो वैसी अवस्थामें क्या उपदेश ग्रहण करनेवाले उसे व्रतीकी दृष्टिसे देखेंगे ? और नहीं देखने पर, उसके उपदेशका वे कहांतक आदर करेंगे ? दूसरे, जब उपदेष्टाकी आत्मा स्वयं व्रताचरण से पतित है तब वह उन्नत मार्गका प्रभावपूर्ण उपदेश दे नहीं सकता । इसलिये सबसे प्रथम स्वात्मसाधनमें सावधान होना प्रत्येक सुबुद्धिका कर्तव्य है । उसके पश्चात् परात्म-साधन में प्रवृत्त होना चाहिये ।
१५४ }
वात्सल्य अंगका लक्षण
अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मी निबंधने धर्मे । सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्यमालंव्यं ॥ २६ ॥
अन्वयार्थ - (अहिंसायां ) अहिंसा में (शिवसुखलक्ष्मी निबंधने मोक्ष सुखरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति में कारणभूत (धर्में ) धर्म में (च ) और ( सर्वेषु ) समस्त ( सधर्मिषु अपि ) समान धर्मवालों में भी ( परमं ) उत्कृष्ट (वात्सल्यं ) वात्सल्यभाव ( आलंव्यं ) पालना चाहिये ।
विशेषार्थ - जिसप्रकार गौकी उसके बछड़ेके प्रति प्रीति होती है, उसीप्रकार धर्मसे, धर्मात्माओंसे, धर्ममें सहायता करनेवालोंसे प्रेमभाव जहां प्रगट किया जाता है वहींपर वात्सल्यअंगका पालन होता है । अपने और परके भेद से वात्सल्यके भी दो भेद हैं । जिससमय परीषह उपसर्ग आदि निमित्तकारणोंसे किसीके द्वारा आत्मा पीड़ित किया जाय, उससमय अपने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org