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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm दोषोंका प्रकाशमें लाना है, वह अयुक्त है तथा उपगृहनअंगका घात करना है । कारण दोषोंके प्रकाश करनेसे लाभ कुछ नहीं होता है किंतु दोषी व्यक्किी आत्मामें पश्चात्तापके कारण अशुभकर्मों का बंध होता है । किसी आत्मामें पापबंधका कारण हमें बनना पड़े, यह भी तो निकृष्ट कार्य है। इसलिये उपगूहनअंगकी रक्षाके लिये किसीके दोषोंका जगतमें प्रकाश मत करो किंतु कल्याणकी सच्ची दृष्टि रखकर उसी व्यक्किसे कह दो कि 'तुममें अमुक दोष है उसे जल्दी दूर कर दो।' ऐसा करनेसे अपने परिणामोंमें भी निष्कषायता ओर सरलता बनी रहेगी तथा उस व्यक्तिकी आत्माको भी वास्तविक शांति मिलेगी। यही उपगूहनअंगका स्वरूप है । जहां आत्मीय गुणोंकी वृद्धि की जाती है वहां आत्मा इंद्रियप्रवृत्तिसे उदास हो जाता है, इसलिये आत्माके गुणोंकी वृद्धिके लिये वाह्य क्रियाकाण्डमेंपूजन, यज्ञोपवीतसंस्कार, दान, संयम इत्यादि सभी आगमविहित आत्मीय शुद्धिके कारणों में सम्यग्दृष्टि प्रवृत्त रहता है । इसीप्रकार किसी अज्ञानी पुरुषके कार्यों से अथवा असमर्थ पुरुषके कार्यों से धर्मकी निंदा होती हो, तो सम्यग्दृष्टि पुरुष उस निंदाको दूर कर देता है।
स्थितिकरण अंगका लक्षण । कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनोन्यायात्। श्रतमात्मनः परस्य च युक्तया स्थितिकरणमपि कार्य॥२८॥
अन्वयार्थ- ( न्यायात् वर्त्मनः ) न्यायमार्गसे ( चलयितु ) चलायमान करने के लिये ( कामक्रोधमदादिपु ) काम क्रोध मद आदिकों के ( उदितेषु ) उदित होनेपर ( श्रतं ) शास्त्रानुसार ( युक्त्या) युक्तिपूर्वक ( आत्मनः ) अपना (च) और ( परस्य ) दूसरेका (स्थितिकरणं अपि ) स्थितिकरण भी ( कार्य ) करना चाहिये ।। ___ विशेषार्थ-काम क्रोध मद आदि विकारभावोंके उत्पन्न होनेपर यदि कोई पुरुष न्यायमार्गसे ( संयमसे, व्रतसे, अथवा चारित्रसे ) गिरता हो, तो उसे शास्त्रोंका उपदेश देकर और आगमके अनुकूल युक्तियोंसे
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