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[ पुरुषार्थ सद्धय पाय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm कर बैठते हैं, वही श्रद्धा अंधश्रद्धाके नामसे कही जाती है; क्योंकि वहां स्वानुभव एवं निजी विश्वस्त भावोंकी दृढ़ता नहीं है, केवल दूसरोंकी प्रेरणा से अथवा दूसरोंके देखादेखी वैसा विश्वास किया गया है । परन्तु सम्यग्दृष्टिकी श्रद्धा इस बातसे सर्वथा निराली है; यह निरालापन उसके सम्यक्त्वभावका ही कार्य है । वह जिन बातोंपर श्रद्धान करता है, उसका वह श्रद्धान चाहे परोपदेशपूर्वक हो चाहे स्वयं उत्पन्न हो, परन्तु अंधरूपमें नहीं रहता किंतु स्वानुभवमें आ जाता है । इसलिये उसे श्रद्धाभावके जागृत होनेसे प्रसन्नता होती है, संतोष होता है, आत्मीय परिणामोंमें निर्मलता होती है । भले ही उसकी श्रद्धा पदार्थके निर्णय-पूर्वक न हो, तो भी वह दृढ़तर एवं स्वानुभवगम्य होती है । इसीलिये अन्धश्रद्धालुके समान वह कभी उस श्रद्धाभावसे विचलित नहीं हो सकता। अन्धश्रद्धालु को कालांतरमें दूसरी प्रतीति भी कराई जा सकती है, परन्तु सम्यकश्रद्धालुको बलवती प्रेरणा मिलनेपर भी दूसरी प्रतीति नहीं हो सकती। इतनी दृढ़ताका यही हेतु है कि वह श्रद्धा सम्यग्दृष्टिके स्वात्मोत्थ-अपने आत्मासे प्रगट हुआ निजी-भाव है। इस भावका अनुभव एवं रसास्वाद मिथ्यादृष्टिको कभी हो नहीं सकता; इसीलिये वह उसकी समस्त पदार्थों में होनेवाली श्रद्धापर आश्चर्य प्रगट करता है, उसे अन्धश्रद्धा बताता है। वह यह भी आशंका करता है कि 'बिना उन समस्त पदार्थो का बोध एवं निर्णय किये यह उनपर क्यों श्रद्धा करता है ?” परन्तु उसे यह विदित नहीं है कि सम्यग्दृष्टिकी आत्मामें एक ऐसा भाव जागृत (प्रगट ) हो गया है जोकि उन पदार्थों की यथार्थताका स्वानुभव करा देता है । जिसप्रकार ज्ञानावरणका क्षयोपशम हुए बिना अज्ञानी जीव हेयोपादेयके विचार करनेमें असमर्थ रहता है, परन्तु ज्ञानी जीव हेयोपादेयकेविचारमें समर्थ है, उसका कारण केवल क्षयोपशमरूप सामर्थ्यकी जागृति है, उसीप्रकार मिथ्यादृष्टिकी सामर्थ्य नहीं है कि वह पदार्थों का यथार्थ श्रद्धाका अनुभव कर
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