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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय Mananananananananananananananananananananananananananananananana ही जैनधर्मको ग्रहण करनेसे जीवोंका हित हो सकता है । जैसे जो पुरुष चतुर एवं विश्वासभाजन हितैषी वैद्य-द्वारा बतलाई गई औषधियोंकी पहचानमें असमर्थ रहनेपर भी हितैषी वैद्यके विश्वासपर ही उन्हें खाकर लाभ उठाता है, उसी प्रकार परमहितैषी श्रु तज्ञानके पारगामी महर्षियों द्वारा निरूपण किए-गए जैनधर्मकी पहचानमें जो असमर्थ पुरुष हैं उनका उन महर्षियोंके वचनोंपर विश्वास रखनेसे ही परमकल्याण हो जाता है । जैसे वैद्य-विद्यामें निपुण एवं हितैषी मित्र वैद्य विपरीत औषधि नहीं दे सकता, उसीप्रकार स्व-परोपकारमें लवलीन निस्पृही वीतरागी एवं श्रुतज्ञान-पारगामी श्रीगुरु आचार्यमहाराज विपरीत उपदेश नहीं दे सकते ।
कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि 'जगतमें जितने मत प्रचलित हैं सभी ठीक हैं; हेतु यह देते हैं कि जिन्होंने उन मतोंका आदि प्रचार किया है उनके अभिप्राय बुरे नहीं थे, उन्होंने रागद्वेषसे मतोंका निर्माण नहीं किया है किंतु अच्छे अभिप्रायसे ही किया है । इसलिये हर-एक दर्शन एकदेश ठीक हैं।' ऐसा कहनेवालोंको यह विवेक नहीं है कि अच्छा अभिप्राय अथवा निष्कषाय परिणाम रहने पर भी अज्ञानवश पदार्थ अन्यथा कहा जाता है । जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षामें अच्छे अभिप्रायसे उत्तीर्ण होनेके भाव रखकर बैठता है परन्तु विपरीत लिखनेसे अनुत्तीर्ण (ना-पाश) कर दिया जाता है, यद्यपि विद्यार्थीका अभिप्राय अच्छा है परन्तु अज्ञानतासे वह कुछका कुछ लिख डालता है, उसीप्रकार अल्पज्ञोंद्वारा निर्माण किये गये दर्शन पदार्थका अनेकांत रूप नहीं बतला सकते, अथवा समस्त वस्तुओंका यथार्थस्वरूप नहीं कह सकते । अतः सर्वज्ञदेव-द्वारा प्रतिपादित दिगंबर जैनधर्म ही सच्चा है। वही वस्तुका यथार्थ प्रतिपादन करनेवाला है, उसीकी श्रद्धासे आत्माओंका सच्चा कल्याण एवं मोक्षलाभ होता है । सर्वत्र भटकनेसे कभी शांति नहीं मिल सकती।
इसलिये सूक्ष्मपदार्थ ( धर्म, अधर्म, आकाश, कालद्रव्य ),अंतरित
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