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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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निर्मूल एवं युनिप्रमाणवाधित रहती हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि पहले शास्त्राधारसे लोकरचनासंबंधी शास्त्रोंका परिज्ञान किया जाय, पीछे भूगोलविद्याका अध्ययन भी किया जाय तो उससे फिर विपरीतबुद्धि नहीं हो सकती। इसीप्रकार चारित्र एवं पुराणोंके संबंधमें बिना उनका स्वरूप समझे और उस विषयके शास्त्रोंका रहस्य समझे, वे लोग अपने बुद्धिकौशलसे अन्यथा निरूपण करते हैं । इसका कारण यही है कि वे अपनी समझतक ही पदार्थस्वरूप समझते हैं, शास्त्रोंका रहस्य जाननेका प्रयास करते नहीं हैं, साथ ही उन्हें कुमतिज्ञानधारियोंकी प्रारंभसे ही शिक्षा दे दी जाती है । बुद्धिमान् पुरुषका कर्तव्य है कि वह पदार्थको परीक्षापूर्वक ग्रहण करनेका प्रयास करता रहे, परन्तु परीक्षा भी परीक्षाकोटि तक पहुंचकर ही करें । परीक्षा करनेकी योग्यता न होनेपर जो परीक्षाकेलिए अपनी स्वतंत्रबुद्धिको कष्ट देते हैं, वे विद्वानोंमें कभी प्रशंसाके भाजन नहीं बन सकते । आगमके अनुकूल ही बुद्धिका विकाश एवं झुकाव करना प्रत्येक बुद्धिमानके लिये हितकारी है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि जो परीक्षाकी योग्यता रखते हुए परीक्षापूर्वक पदार्थको ग्रहण करते हैं वे उससे फिर कभी विचलित नहीं होते । इसमें भी संदेह नहीं है कि जैनधर्मकी परीक्षा करना अग्निमें तपाये हुए सोनेके समान उसको महत्त्व देना है। जिसप्रकार सोनेको जितना अग्निमें तपाया जायगा उतना ही वह महत्त्वशाली एवं बहुमूल्य होता जायगा, उसीप्रकार जैनधर्मकी जितनी छानबीन-पूर्वक परीक्षा की जायगी उतना ही वह महाग्रं असाधारण हितकारी तथा अद्वितीय सद्धर्मनिरूपक प्रतीत होता जायगा। परन्तु जिन्हें सोनेकी पहचान नहीं है वे यदि सोनेको सोनेरूपमें श्रद्धान न करें, तो क्या उनकी नासमझी एवं अहितता नहीं समझी जायगी ! इसी प्रकार जो जैनधर्मको परीक्षापूर्वक ग्रहण करने में असमर्थ बनकर श्रद्धानपूर्वक न ग्रहण करें, तो क्यो उनका अहित न होगा ? इसलिये परीक्षाकी योग्यता न रहनेपर श्रद्धापूर्वक
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