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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
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धर्मको धारण करे, उसीको श्रावक कहते हैं । जो धर्मकर्मसे शून्य रहकर केवल सांसारिक वासनाओंमें रत है, वह मोही संसारी है, अज्ञानी है, अपनी आत्माको ठगनेवाला है । तियंचमें और उस पुरुषमें कोई भेद नहीं है. केवल पर्यायका भेद है । इसलिये जैनमात्रका कर्त्तव्य है कि गृहस्थाश्रममें रहकर अपनी शक्रिके अनुसार व्रत संयम धारण करे । इसीमें मनुष्यजीवनका सार है, अन्यथा वह निःसार है । यह संसार समुद्रतुल्य अथाह है । समुद्रका परिणाम तो भी है, इसका परिणाम भी नहीं है; यह अनंत है । इस अनंत संसारसमुद्रसे पार होनेका यदि मार्ग है, तो वह मनुष्यजीवन हैं । यथार्थ में मार्ग तो रत्नत्रयरूप धर्म है, मनुष्यजीवन उसका एक प्रधान साधन है । यद्यपि अन्य पर्यायोंमें भी धर्म धारण किया जा सकता है, परन्तु उन पर्यायोंमें पूर्ण धर्म धारण करनेकी पात्रता एवं शक्यता नहीं है । मनुष्यपर्यायमें ही यह सामर्थ्य है कि प्रयत्न एवं सद्विवेक द्वारा यह आत्मा संसारबन्धनको सर्वदा के लिये दूर कर सकता है । अन्य पर्यायों में वैसी सामर्थ्य क्यों नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि उनमें अंतरंग एवं बहिरंग साधन वैसे नहीं प्राप्त हैं जैसे कि रत्नत्रय के पूर्ण साधन करनेयोग्य मनुष्य पर्यायमें प्राप्त हैं । तिर्यंचपर्याय में तो पूर्ण श्रावकव्रत भी नहीं पाले जा सकते तो मुनिधर्म कैसे पाला जा सकता है, कारण तिर्यंचके शरीरकी रचना ऐसी नहीं है कि वहांपर मुनिदीक्षा अथवा उच्चकोटिके श्रावकव्रत पालन किये जा सकें। जो कार्य पुरुष शरीरसे किये जा सकते हैं, वे उस चार पैरवाले मूक तिर्यंचसे हो ही नहीं सकते । नरक और देवपर्याय में भी संयम धारण करनेकी सामर्थ्य नहीं है । न तो वहां वाह्यप्रवृत्तियों द्वारा व्रत ही धारण किये जा सकते हैं और न कर्मोदयप्राप्त वाह्यप्रवृत्तियोंका सुधार ही हो सकता है। देवोंके मुखमें नियमित अवधि में नियमसे अमृतरस करता है, उससे उनकी क्षवानिवृत्ति होती है । उसे वे रोक भी नहीं सकते, वैसी अवस्था में उनसे संयम कभी नहीं पल
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