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पुरुषार्थसिद्धय पाय } verwarmersssssssssssssssswasserwwmmmmmmmmmmmmmmm प्राप्ति न हो तो भी उस आत्माका कल्याण नहीं हो सकता। इसीलिये देशनालब्धिको सम्यक्त्वप्राप्तिमें कारण बतलाया गया है । देशनालब्धि सम्यग्दर्शनके पूर्वज्ञानकी अवस्था है; इसलिये स्वानुभवशून्य होनेसे वह मिथ्याज्ञान है परन्तु सद्गुरुका उपदेश होनेसे वह आत्मोपयोगी पदार्थों का यथार्थ बोध है एवं सम्यक्त्वप्राप्तिमें कारण है; इसलिये उसे सम्यग्ज्ञान भी कहा जाता है । यदि देशना मिथ्याज्ञान ही हो तो मिथ्यादृष्टिकी आत्मामें आत्मोपयोगी पदार्थों के परिज्ञानसे होनेवाले स्वानुभूतिप्राप्तिके योग्य विशुद्ध परिणाम कभी नहीं हो सकते । इसलिये देशनालब्धि व्यवहारदृष्टि से सम्यग्ज्ञान तथा निश्चयदृष्टिसे मिथ्याज्ञानरूप है ।
इस समस्त कथनसे, जिसप्रकार सम्यग्ज्ञानसे पहले सम्यग्दर्शन उपादेय है, उसीप्रकार सम्यकचारित्रके पहले सम्यग्ज्ञान उपादेय है । यद्यपि सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करनेपर तीनोंकी प्राप्ति एकसाथ होती हैजिससमय आत्मामें सम्यग्दर्शन प्रगट होता है उसीसमय उसमें सम्यग्ज्ञान
और स्वानुभवरूप स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट होते हैं, फिर भी जो तीनोंकी क्रमप्राप्तिका विधान कियागया है वह विशेष विवक्षासे किया गया है।
सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेपर सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र भजनीय (प्राप्तव्य, प्राप्त करनेयोग्य ) हैं । सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थानमें उत्पन्न हो जाता है और प्रतिपक्षी कर्मके सर्वथा क्षय होनेसे प्रगट होनेवाली पूर्णता सातवें अप्रमत्तगुणस्थान तक पूर्ण (क्षायिक ) प्रगट हो जाती है; उसके पूर्ण होनेपर भी सम्यग्ज्ञानकी पूर्णता नहीं हो पाती इसलिये वह सम्यगदर्शनके पीछे भजनीय बना रहता है । सम्यग्ज्ञान भी चौथे गुणस्थान से प्रगट होकर तेरहवें गुणस्थान ( सयोगकेवली ) के प्रथमक्षणमें- प्रारंभकालमें ही पूर्ण ( सर्वज्ञ ) ज्ञान हो जाता है। उसके पूर्ण होनेपर भी
१. क्षायिकसम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सातवें तक किसी भी गुणस्थानमें हो जाता है । और वह फिर कभी आच्छादित नहीं होता, सिद्धोंमें भी बना रहता है ।
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