Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
सम्यग्दृष्टिका ज्ञान सम्यग्ज्ञान ही है। दूसरी बात, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के भेद मेंयह है कि सम्यग्दृष्टि तो सदा आत्मोपयोगी पदार्थों में रुचि, प्रतीति, श्रद्धा करता है, परन्तु मिथ्यादृष्टि आत्मोपयोगी पदार्थों में श्रद्धा नहीं करता; केवल ( वाह्य आत्मभिन्न ) जड़पदार्थों में अपनी बुद्धिका कौशल प्रगट करता रहता है और जबतक आत्मोपयोगी-सप्त तत्व, नवपदार्थ आदिमें प्रतीति अथवा श्रद्धा इस जीवकी नहीं होती, तबतक उसका बाह्यपदार्थों में जितना भी ज्ञान है वह सब व्याकुल अशांत एवं मिथ्या है । कारण, उस ज्ञानसे आत्मा वास्तविक सुखी नहीं बन सकता; क्योंकि वह आत्मोपयोगी तत्व तक पहुंच ही नहीं पाया है। ऐसी दशामें यह कहना असंगत नहीं है कि सम्यग्दृष्टि-पशुओंका ज्ञान भी आत्मोपयोगी एवं स्वानुभवयुक्त होनेसे सराहनीय है, और मिथ्यादृष्टि एक बड़े विद्वान्का ज्ञान भी आत्मानुपयोगी एवं स्वानुभवशून्य होनेसे सराहनीय नहीं है। इसलिये वाह्यपदार्थो के जानने न-जाननेसे ज्ञानमें सम्यक-मिथ्यापन नहीं आता किंतु प्रयोजनीभूत (आत्मोपयोगी) पदार्थो की अभिरुचि ( प्रतीति ) करनेसे ही सम्यक-मिथ्यापन आता है । फिर देशनालब्धिको जो सम्यक्त्वप्राप्तिमें कारण कहा गया है, उसका प्रयोजन यह है कि जिससमय आत्मासे मोहनीयकर्मका प्रभाव कुछ मन्द हो जाता है अर्थात् जब कुछ कमों की स्थितिमें और रसोदयमें मन्दता आ जाती है तथा परिणामोंमें विशुद्धता आ जाती है, उससमय किसी सद्गुरुका सदुपदेश मिलने पर आत्मा 'करणत्रय ( अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ) माडनेके योग्य परिणामोंवाला बन जाता है । अर्थात् देशनालब्धिसे आत्मा सम्यगदर्शनकी प्राप्तिके उन्मुख हो जाता है यदि उससमय उसके कर्मों की स्थिति एवं रसोदय मन्द न हो तो उस देशनालब्धिका कुछ फल नहीं हो सकता, और जिस समय कर्मों के उदयकी मन्दता हो उस समय उसे सदुपदेशको १ करणत्रयका स्वरूप आगे सम्यक्त्वके स्वरूपमें कहा जायगा ।
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