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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
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व्यवस्थामें धर्मद्रत्यकी सहायताका विधान भी मानना पड़ता है। जब अन्य पदार्थों की व्यवस्था जैसी आगम-कथितहै, वैसी ठीक ठीक उपलब्ध हो रही है, तब धर्मद्रव्य की व्यवस्था भी आगम-कथित है, वह भी टीक माननी ही चाहिये।
तीसरा द्रव्य है अधर्मद्रव्य । यह द्रव्य भी उस अधर्म से भिन्न है जो अधर्म जीवका अशुभ परिणाम है एवं पापफलका देनेवाला है । जीवका परिणाम अधर्म ‘पर्याय' है, यह अधर्म'द्रव्य' है। वह अधर्म चेतनका परिणाम होनेसे 'चेतन' है, यह 'जड़' है । धर्मद्रव्यका कार्य जो जीव पुद्गलके गमनमें सहायता देना बतलाया गया है, अधर्मद्रव्यका उससे सर्वथा प्रतिकूल है। अर्थात् वह जीव और पुद्गलोंको चलनेसे ठहरते समय ठहरानेमें सहायता करता है । यह भी ठीक वैसा ही उदासीन कारण है जैसा कि धूपका सताया हुआ पथिक किसी वृक्षकी शीतल छाया देखकर उसके नीचे बैठ जाता है; यदि मार्गमें वृक्षका आश्रय न मिले तो पथिकका ठहरना भी नहीं हो सकता, परन्तु वृक्ष उस ठहरते हुए पथिकको प्रेरणा भी नहीं करता कि वह वहां ठहरे ही । अधर्मद्रव्य चलते हुए जीव पुदगलोंके स्वयं ठहरनेपर उनके ठहराने में सहायक तो हो जाता है परंतु किसी प्रकारकी प्रेरणा नहीं करता। यहांपर यह शंका हो सकती है कि 'चलनेवाले तो जीव और पुद्गल दो ही द्रव्य हैं, इसलिये धर्मद्रव्य तो उन दोनोंमें ही सहायक होता है; परंतु स्थिर होनेवाले तो छहों ही द्रव्य हैं, इसलिये अधर्मद्रव्य तो समी द्रव्योंके ठहरानेमें सहायक होना चाहिये, वह दो ही द्रव्योंमें क्यों सहायक कहा गया है ?' इसका उत्तर यह है कि-जो सदासे स्थिर हैं वे तो स्थिर हैं ही, उनके लिये सहायककी आवश्यकता ही नहीं । जो चलतेचलते स्थिर होते हैं, उन्हींके लिये सहायककी आवश्यकता है। ऐसे दो ही द्रव्य हैं-जीव और पुद्गल । अधर्मद्रव्य भी धर्मद्रव्यके समान असंख्यातप्रदेशी है और लोकाकाशमें व्याप्त है।
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