Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
१२८ ]
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
भी घात नियमसे नहीं कर सकता है । अर्थात् रागभाव आत्माके चारित्रगुणका ही विघात करेगा, वह न तो सम्यक्त्वका ही विघात कर सकता है और न ज्ञानचेतनाका ही विघात कर सकता है । राग चारित्रका ही प्रतिपक्षी है, दोनों ( सम्यक्त्व और चारित्र )का नहीं है; इसलिये चतुर्थगुणस्थानमें भी ज्ञानचेतना होती है । उसका कोई बाधक नहीं है ।। 'तत्राप्यात्मानुभूतिः सा विशिष्टं ज्ञानमात्मनः । सम्यक्त्वेनाविनाभूतमन्त्रयाद व्यतिरेकतः ॥"
अर्थात् आत्मानुभूति आत्माका विशेष ज्ञान है। वह आत्मानुभूति सम्यग्दर्शनके साथ अन्वय और व्यतिरेकसे अविनाभाविनी है । अर्थात् दोनोंकी समव्याप्ति है । इसीकी स्पष्टता और भी नीचेके श्चलोकसे होती है-सिद्धमेतावता यावच्छुद्धोपलब्धिरात्मनः । सम्यक्त्वं तावदेवास्ति तावती ज्ञानचेतना ।।"
__ अर्थात् ऊपरके कथनसे यह बात सिद्ध हो जाती है कि जबतक आत्माकी शुद्धोपलब्धि है, तभी तक सम्यक्त्व है; और जबतक सम्यक्त्व है, तभीतक ज्ञानचेतना है । इस श्लोकसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जो भाव सम्यक्त्वका घातक होगा वही ज्ञानचेतनाका भी घातक होगा, और जो सम्यक्त्वका घातक नहीं है वह ज्ञानचेतनाका भी घातक नहीं होगा।
परोपयोगके समय यदि सम्यग्दृष्टिके ज्ञानचेतना न मानकर कर्मचेतना मानी जाय तो सम्यक्त्वका अभाव भी उससमय मानना पड़ेगा। इसलिये यह निर्णीत बात है कि जिससमय सम्यग्दृष्टिके स्वात्माके विषयमें अनुपयुक्त अवस्था है अर्थात् लब्धिरूप स्वानुभूति है । उससमय भी उसके ज्ञानचेतना ही है, ज्ञानचेतना अभाव उसके किसी समय भी नहीं है । रागद्वेषपूर्वक प्रवृत्तिके समय सम्यग्दृष्टिके शुद्धोपलब्धि होती है या नहीं ? यदि होती है, तब तो उससमय सम्यग्दृष्टिके कर्मचेतना और कर्मफलचेतना नहीं बन सकती। यदि उससमय शुद्धोपलब्धि नहीं स्वीकारकी जाय तो उससमय सम्यक्त्वका भी निषेध करना होगा; इसलिये अगत्या यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि सम्यक्त्वके सद्भावमें हरसमय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org