Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[१२६ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ज्ञानचेतना है । जिससमय सम्यग्दृष्टि रागक्रियामें उपयुक्त है उससमय वह सराग सम्यग्दृष्टि कहा जाता है, जिससमय वह केवल स्वात्मोपयोगमें अनुरक है उससमय वह भी निर्विकल्पक कहा जाता है । सराग सम्यग्दृष्टिके जो ज्ञानचेतना नहीं मानते हैं अथवा सम्यग्दृष्टिके सरागी और वीतरागी ऐसे जो दो भेद करते हैं, उनके लिये आचार्य खेद प्रकाशित करते हुये उनके शास्त्राभ्यासको भी व्यर्थ बतलाते हैं एवं उन्हें दुराशय बतलाते हैं"व्यावहारिकसम्यक्वं सरागं सविकल्पकम् । निश्चयं वीतरागं तु सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् ॥ इत्यस्ति वासनोन्मेषः केषांचिन्मोहशालिनाम् । तन्मते वीतरागस्य सदृष्टानचेतना ॥ तत्रास्ति वीतरागस्य कस्यचिज्ज्ञानचेतना । सदृष्टनिर्विकल्पस्य नेतरस्य कदाचन ॥ व्यावहारिकसदृष्टः सविकल्पस्य रागिणः । प्रतीतिमात्रमेवास्ति कुतः स्यात् ज्ञानचेतना ॥ इति प्रज्ञापराधेन ये वदंति दुराशयाः । तेषां यावच्छु ताभ्यासः कायक्लेशाय केवलम् ॥"
इन श्लोकोंका यही अभिप्राय है कि जो लोग 'एक सरागसम्यक्त्वं' एक वीतरागसम्यक्त्व' ऐसे सम्यक्त्वके दो भेद करके सरागसम्यग्दृष्टिके प्रतीत मात्र मानते हैं, केवल वीतरागसम्यग्दृष्टिके ज्ञानचेतना मानते हैं, ऐसे पुरुषोंके श्रुताभ्यासको श्रीआचार्य महाराज व्यर्थ ही बताते हैं । इन्हीं श्लोकोंके आगे यदि श्रीपंचाध्यायीका स्वाध्याय किया जाय तो विदित हो जायेगा कि सरागता एवं उपयोगांतरता सम्यग्दर्शनके विशेषण ही नहीं हैं, किंतु उपयोगांतरता ज्ञानकी लीला है और सरागता चारित्रमोहनीयकी उदयरूप अवस्था है। प्रतिपक्षी कर्मों के अभावमें सम्यक्त्व तो सदा टंकोत्कीर्णवत् निश्चल है, उसको सराग मानना सिद्धांतविरुद्ध है । जहांकहीं ऐसे भेद किये गये हैं, वहां स्थूलदृष्टिसे किये गये हैं अथवा चारित्रकी सहयोजनासे किए गए हैं, जोकि गुणस्थान क्रमवृत्तिकें सूचक हैं । सम्यक्त्वमात्रकी स्वरूप-विवेचनामें उक्त दोनों भेदोंका उल्लेख करना कार्यकारणभावका विधात करना है एवं कार्य-सांकर्य तथा गुण-सांकर्य करना है। रागादि परिणामोंको सम्यक्त्वमें सर्वथा अकिंचित्कर समझकर ग्रन्थकार
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