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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
सम्यग्दृष्टिकी कर्मजा क्रिया बंधका कारण तो हैं ही नहीं, वह उलटी निर्जराका कारण है | ज्ञानी तथा अज्ञानी दोनोंकी क्रिया यद्यपि समान है, तथापि अज्ञानी की क्रिया बन्धका कारण है, ज्ञानीकी क्रिया बन्धकारण नहीं है किंतु वह निर्जराका कारण है । ऐसी अवस्थामें सम्यग्दृष्टिके रागद्वेषपूर्व कर्मबन्ध करनेकी अपेक्षा कर्मचेतना कहना नितांत असंगत एवं सिद्धांतबाधित है । सम्यग्दृष्टि रागी भी वास्तवमें नहीं है । यथा“सिद्धो निष्कांक्षितो ज्ञानी कुर्वाणोभ्युदितां क्रियास् । निष्कामतः कृतं कर्म न रागाय विरागिणाम् ॥”
[ १३३
इस श्लोक से स्पष्ट किया गया है कि सम्यग्दृष्टि वीतरागी है, उसको अरुचिपूर्वक की गई क्रिया रागमें शामिल नहीं की जा सकती । नीचेके श्लोक- द्वारा यह बात पंचाध्यायीकारने बिलकुल स्पष्ट कर दी है कि कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका फल बंध है । सम्यग्दृष्टिके त्यागका अभाव है, इसलिये उसके बंध नहीं होता; अतएव उसके ज्ञानचेतना ही है । श्लोक यह है
" चेतनायाः फलं बंधस्तत्फले वाऽथ कर्मणि । रागाभावान्न बंधोस्ति तस्मात्सा ज्ञानचेतना || " अर्थ ऊपर किया जा चुका है । और भी विशदता देखिये"सम्यग्दृष्टिरसौ भोगान् सेवमानोप्य सेवकः । नीरागस्य न रागाय कर्माकामकृतं यतः || २७४ || "
अर्थ - यह सम्यग्दृष्टि भोगोंको सेवन करता हुआ भी उनका सेवन करनेवाला नहीं कहलाता है, बिना इच्छाके अर्थात विना रुचिके किया हुआ कर्म (क्रिया) वीतरागी के रागके लिये नहीं होता है। नीचेके श्लोक से सम्यग्दृष्टि के अभिलाषाका निषेध किया गया है । यथा
"कर्मणा पीडितो ज्ञानो कुर्वाणः कर्मजां क्रियां । नेच्छेत्कर्मपदं किंचित् साभिलाषः कुतो नयात् ।। "
इस श्लोक क्या यह बात अवशिष्ट रह जाती है कि अभिलाषापूर्वक की गई क्रिया ही कर्मचेतना में शामिल की जाती है, अन्यथा नहीं । सम्यग्दृष्टि के अभिलाषाका इस श्लोक से निषेध किया गया है। रागभाव मिथ्याष्टके ही होता है, यह बात भी नीचे स्पष्ट की जाती है
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