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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय मोहेस्तंगेत पुसः शुद्धस्यानुभवो भवेत् । न भवेद्विघ्नकः कश्चित् चारित्रावरणोदयः ॥ ६८८ ||" अर्थात् - शुद्धात्मानुभवमें मिथ्यात्वका उपशम हेतु है । मिथ्यात्वकर्मका उदय शुद्धात्माके अनुभवमें बाधक हैं, वह उसका प्रतिपक्षी है । दर्शनमोहनीयके अस्त होनेपर अर्थात् अनुदय होने पर शुद्धात्माका अनुभव होता है; उसमें चारित्रमोहनीयका उदय वाधक नहीं हो सकता । उपयोगके विषय में कहते हैं
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"स्वस्मिन्नवोपयुक्तोपि नोत्कर्षाय स वस्तुतः । उपयुक्तः परत्रापि नापकर्षाय तत्त्वतः || ८६५ || " अर्थात् - ज्ञान चाहे स्वोपयुक्त हो या परोपयुक्त हो, दोनों ही अवस्थामें कोई गुण दोष नहीं है । ज्ञानोपयोग के परिवर्तन से सम्यग्दर्शन में कुछ गुण दोष नहीं होता है
"चर्यया पर्यटन्नव ज्ञान मर्थेषु लीलया । न दोषाय गुणायाथ नित्यं प्रत्यर्थमर्थसात् ||८६७ || "
ज्ञान पदार्थों में लीलामात्र से घूमता फिरता है, वह प्रत्येक पदार्थको जानता हुआ न तो कोई दोष पैदा करता है और न कोई गुण पैदा करता है । अर्थात् ज्ञानगुणका कार्य प्रत्येक पदार्थको जाननामात्र है, उसका सम्य
बात
के गुणदोषसे कुछ प्रयोजन नहीं है । यहां दोपसे प्रयोजन सम्यग्दर्शन की हानिसे है और गुणले प्रयोजन उसकी उत्पत्ति और वृद्धिसे हैं । यह पंचाध्यायी के ८६८, ८६६, ८७०, ८७१ और ८७२ वें श्लोकोंसे जानना चाहिये । ज्ञान दर्शन कहांतक सविकल्प कहे जाते हैं, सौ कहते हैं“हेतोः परं प्रसिद्ध यैः स्थूललक्ष्यैरितिस्मृतं । आप्रमत्त ं च सम्यक्त्वं ज्ञानं वा सविकल्पकं ॥ ९१४ ।। ततस्तूर्ध्व तु सम्यक्त्वं ज्ञानं वा निर्विकल्पकं । शुक्लध्यानं तदेवरित तत्रास्ति ज्ञानचेतना ||९१५|| प्रमत्तानां विकल्पत्वान्न स्यात्सा शुद्धचेतना | अस्तीति वासनोन्मेषः केषांचित् स न सन्निह । ९९६ ॥ । '
अर्थ- स्थूलपदार्थको लक्ष्य रखनेवाले जिन प्रसिद्ध पुरुषोंने केवल रागरूप हेतुसे ऐसा कहा है, उनका कहना है कि प्रमत्तगुणस्थानपर्यंत सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों ही सविकल्पक हैं । प्रमत्तगुणस्थान से ऊपर सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों ही निर्विकल्पक होते हैं, वही शुक्लध्यान कहलाता है
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