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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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उसकी सिद्धि भी धर्मद्रव्यके समान समझ लेना चाहिये ।
चौथा 'आकाशद्रव्य' है । यह द्रव्य एक है, अनंतप्रदेशी है । लोक अलोक सर्वत्र व्याप्त है । पदार्थों को अवगाह (स्थान) देना इसका कार्य है । आकाश भी धर्म अधर्मद्रव्योंके समान अमूर्तिक है । यदि कोई शंका करने लगे कि 'आकाश कुछ वस्तु नहीं हैं, पोलका नाम ही आकाश है, पोल खुले प्रदेशोंको कहते हैं अर्थात् खाली ( रीते ) स्थानको आकाश कहते हैं, वह अन्य वस्तुओंके अभावस्वरूप है।' इसका उत्तर यह है कि-जब जगत्की समस्त वस्तुओंकी खोज एवं गणना की जाती हैं, तब पोल जिसे कहते हैं उसकी भी किसी वस्तुमें सम्हाल करनी ही पड़ेगी। क्योंकि "जित्तियमित्ता सदा तित्तियमित्ताणि होति परमत्था” जितने शब्द होते हैं, उतने ही उनके अर्थ होते हैं और संसारमें ऐसा कोई वाच्य (अर्थ) नहीं जो अभावरूप हो । इसलिये जो पोलके नामसे प्रसिद्ध है, वह भी एक भावरूप द्रव्य है। उसीका नाम आकाश है। आकाशद्रव्य प्रायः सभी दर्शनवालोंने स्वीकार किया हैं । इस द्रव्यके संबंधमें किसीको निषेध नहीं है; इसलिये इस द्रव्यकी विशेष सिद्धिकी आवश्यकता नहीं है । ___पांचवां 'कालद्रव्य' है। यह द्रव्य असंख्यात है, लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश पर एक एक कालद्रव्य जुदा जुदा ठहरा हुआ है । हर-एक द्रव्यके समान इस द्रव्यका भी प्रतिक्षण परिणमन हुआ करता है, कालके एक क्षणवर्ती परिणमनको समय कहते हैं । वास्तवमें लोकमें जो समय समयका व्यवहार होता है, वह कालद्रव्यकी ही पर्याय है । प्रत्येक द्रव्यके परिणमनके साथ जो यह व्यवहार होता है कि 'अमुक वस्तु इतने समयकी है, अमुक वस्तु अमुक समयमें आई थी और अमुक समयमें चली गई, गतवर्षके समयमें हमने एक छात्र को पंचाध्यायी और राजवार्तिक ये दो ग्रन्थ पढ़ाये थे, उससमय परीक्षा देने पर वह छात्र पास भी उन ग्रन्थोंमें हुआ था' इत्यादि जो प्रत्येक वस्तुके साथ समयका व्यवहार होता है,
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