Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
कारण कार्यकी अभेदविवक्षा रखकर उन्हें सम्यक्त्वके लक्षणमें प्रगट किया गया है । यह नियम नहीं है कि तत्त्वार्थश्रद्धान आदिके होनेपर अंतरंगसम्यक्त्व हो ही हो । बिना सम्यक्त्वके प्रादुर्भाव हुए भी वाह्यश्रद्धानादिक होते हैं। इसीलिये उन्हें उपलक्षण ( उपचरितलक्षण ) कहा गया है । जहां सम्यक्त्वके होनेपर श्रद्धानादिक पाये जाते हैं वहां वे उपलक्षण ( लक्षणके लक्षण ) हैं । सम्यक्त्वका लक्षण स्वानुभूति है, और स्वानुभूति के लक्षण श्रद्धानादिक हैं।
तत्त्वार्थश्रद्धान किसे कहते हैं, इसका खुलासा इसप्रकार है,-'तत्व' नाम पदार्थके भाव (धर्म) को कहते हैं, 'अर्थ' नाम निश्चय करनेका है । जो भावरूपसे निश्चित किया जाय उसे तत्त्वार्थ कहते हैं, अर्थात् जो जिस वस्तुका धर्म है, भाव है, उस धर्मको लिये हुए उस वस्तुको निश्चय करनेका नाम ही तत्वार्थ है । 'जो जिस धर्मको लिये हुये है' ऐसा यदि नहीं कहा जाय तो यह दोष होगा कि जिस वस्तुका जो स्वरूप नहीं है उस रूपसे भी उसका श्रद्धान किया जा सकता है अर्थात् विपरीत श्रद्धान भी सम्यक्त्वका लक्षण ठहरेगा। इसलिये अपने स्वभावको लिये हुये वस्तुका श्रद्धान करना ही यथार्थश्रद्धान है । वस्तुके यथार्थश्रद्धानका नाम ही तत्त्वार्थश्रद्धान है । तत्व जगत्में सात ही हैं; न ज्यादा हैं, न कमती हैं । इन्हीं सात तत्त्वोंमें जगत्के समस्त पदार्थ गर्भित हैं । ये सात भेद भी जीवकी विशेष पर्यायोंकी अपेक्षासे कहे गये हैं, मूलमें दो ही तत्व हैं१-जीव और २-अजीव । यदि भेदनिरूपणसे मूल तत्त्वोंका विचार किया जाय तो छह भेदोंमें समस्त तत्व आ जाते हैं । वे छह भेद-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, इन नामोंसे प्रसिद्ध हैं । हमारे नेत्रों से जितने पदार्थ दृष्टिगत होते हैं, वे सब एक ही पुदगलतत्वके विकार हैं । नेत्रोंसे जो भी पदार्थ दीखते हैं वे सब रूपवाले हैं, जो रूपवाले हैं वे सब पुद्गलके भेद हैं । इसी प्रकार कानसे सुने जानेवाले शब्द, नाक
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