Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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तत्त्वार्थ सूत्रकार श्री उमास्वामिमहाराजने भी यही लक्षण किया है । 'रत्नकरंडश्रावकाचार' के कर्ता श्रीसमंत भद्राचार्यने देवशास्त्रगरुके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है । आचार्यों के शिरोमणि श्रीकुंदकुंदस्वामीने स्वानुभूतिको ही सम्यक्त्व बतलाया है । इत्यादि रूपसे सम्यक्त्वके अनेक लक्षण देखनेमें आते हैं । इनमें कौनसा लक्षण सुघटित एवं यथार्थ समझा जाय, तथा कौनसा अनुपयुक्त समझा जाय, और सम्यक्त्वके लक्षण में इसप्रकार का मतभेद क्यों हुआ ? इन प्रश्नोंको वे पुरुष उठाये बिना नहीं रह सकते, जिन्होंने सम्यग्दर्शनके अंतरंग भाव पर गहरी दृष्टि नहीं डाली है । जो विद्वान् सम्यग्दर्शनके लक्षणकी गहरी गवेषणा कर चुके हैं उन्हें फिर ऊपर कियेगये लक्षणभेद एवं मतभेद सब एक ही प्रतीत होते हैं । वास्तवमें विचार किया जाय तो उपर्युक्त सभी लक्षण एक ही हैं, केवल शब्दभेदसे भिन्नभिन्न प्रतीत होते हैं । क्यों एक हैं ?" इसका खुलासा इसप्रकार है, - सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करनेपर विदित होता है कि ऊपर कहेगये सभी सम्यक्त्वके लक्षण ज्ञानरूप पड़ते हैं; क्योंकि जीवादिक तत्त्वोंका श्रद्धान करना यह ज्ञानकी ही पर्याय है । यद्यपि विश्वासमें और ज्ञानमें स्थूलरीति से भेद मालूम होता है, परंतु जैसेका तैसा श्रद्धान करनेका यही अभिप्राय है, कि पदार्थों का जो वास्तविक स्वरूप है उसे पहचान कर उसपर दृढ़ रहना चाहिये । अथवा देवगुरुशास्त्रका जो सच्चा स्वरूप है उसे विदित कर उसीपर दृढ़ रहना चाहिये । यह दृढ़ता दृढ़ज्ञान एवं संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय-रहित निश्चल ज्ञानको छोड़कर दूसरी वस्तु नहीं पड़ती है अर्थात पदार्थों के ठीक ठीक ज्ञान पर ही दृढ़ बने रहना, कभी उससे विचलित नहीं होना, इसी ज्ञानकी पर्यायको सम्यक्त्वके लक्षणके नामसे कहा गया है । वास्तव में सम्यक्त्वका लक्षण मानसे भिन्न ही है, वह अवक्तव्य है, वचनके अगोचर है । इस संबंध में 'पंचाध्यायी' नामक शास्त्रके दूसरे अध्यायमें श्रीअमृचंद्रसूरिने कहा है कि
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