Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय }
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm वरणकर्मके अभावमें होती है । सम्यक्त्वकी प्राप्ति दर्शनमोहनीयकर्मके अनुदयमें होती है, इसलिये ऐसी भी बात नहीं है कि जिनके ज्ञान अधिक प्रगट हो जाय उनके सम्यक्त्व भी प्रगट हो जाय । __ आजकल अनेक पुरुषोंमें ज्ञानका तो आधिक्य पाया जाता है, परन्तु सम्यक्त्वका उनमें सद्भाव नहीं पाया जाता । दृष्टांतके लिये अनेक पाश्चात्यभाषाभिज्ञ भारतवासी एवं पाश्चात्यदेशवासी विद्वानों को ले लीजिये । उन लोगोंमें ज्ञानका प्रसार अधिक देखने में आता है, अनेक भौतिक चमत्कार आज हमारे सामने ऐसे उपस्थित हैं कि जिन्हें देखकर आश्चर्य उत्पन्न होता है, जैसे-वे-तारका तार, 'वायुयान, टेलीफोन, टेलीग्राफ, ग्रामोफोन आदि । इन अद्भुत आविष्कारोंको देखकर बहुतसे लोग यहां तक नवीनतामें गोता खाने लगते हैं । उन्हें संभावना होती है कि इन आविष्कारोंके बढ़ते बढ़ते कहीं जड़से चेतनकी रचना भी न होने लगे । परन्तु उन्हें यह नहीं मालूम है कि जहांतक पदार्थों में योग्यता है वहींतक उनसे पर्यायें तैयार हो सकती हैं; असंभव बातें कभी कोई कर नहीं सकता । जड़ से चेतनका होना सर्वथा असंभव है, वह कभी हो नहीं सकता, ये सब आविष्कार पुद्गलके हैं, पुद्गलमें अचिन्त्य एवं अनंत शनियां भरी हुई हैं, उन्होंमें अनेक परिणमन होते
१ जो लोग यह समझ बैठे हैं कि भौतिकवादकी उन्नति एवं सूक्ष्म खोज जैसो गौरांगजातिने की है वैसी पहले नहीं थी, यह उनकी समझ भारतवर्ष के सच्चे इतिहाससे विरुद्ध है । परमपूज्य जीवंधरस्वामी के पिता श्रीसत्यंधर राजाने शत्र काष्ठांगारद्वारा किये गये षड्यंत्रको खबर लगते ही केकियंत्र अर्थात् मयूरके आकारका उड़नेवाला एक यंत्र बनवाया था और उसमें अपनी गर्भवती महारानी विजयाको बिठाकर आकाशमें उड़ाया था, परन्तु दैवयोगसे वह वायुयान राजपुरीके श्मशान में ही गिर पड़ा था । आजकल जो वायुयान बनते हैं वे भी प्रायः मयूरके आकारवाले होते हैं और कलपुर्जे खराब होने से पृथ्वीपर अचानक ही गिर पड़ते हैं । इस सम्बन्धका समस्त इतिहास जाननेके लिये क्षत्रचूड़ामणि, जीवंधरचभू. गद्यचिंतामणि इन ग्रन्थोंको देखना चाहिये । उससमय बनवाये गये केकियंत्रके कथनसे यह बात भलीभांति सिद्ध होती है कि पहले भी इसप्रकारके आविष्कार होते थे परन्तु पहले पूरुषोंका ध्यान-उपयोग आत्मसाधनकी ओर अधिक था, इधर भौतिकवादमें बहुत कम था एवं भोगविलासोंमें कष्टोंकी मात्रा बहुत कम होनेसे उनकी प्रवृत्ति ऐसे झंझटों की ओर बहुत कम होती थी। कारण इन आविष्कारोंका जितना अधिक प्रयोग हुआ है. उतनी ही लोगोंमें आकुलतायें एवं प्राणनाशकी संभावनायें बढ़ गई हैं । सुख और शांति तो इनसे मिलती ही नहीं।
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