Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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स्षार्थसिद्धय पाय।
है वैसा ही जानता है। यदि विपरीत प्रतीति होती है तो विपरीत प्रतिभास भी होता है, यदि यथार्थ प्रतीति होती है तो यथार्थ प्रतिभास भी होता है। जैसे देखने और जाननेका संबंध है; वैसे प्रतीति ( श्रद्धान ) और ज्ञानका भी सम्बन्ध है । अर्थात् ज्ञानका कार्य जानना है, वह पदार्थों को जानता रहेगा; जितना ज्ञानावरणकर्मका उदय रहेगा-मंद मध्यम या तीव्र, उसी के अनुसार वह मंद मध्यम या अधिकरूपसे पदार्थों को जानता रहेगा। वह ठीक जानता है या बेठीक ( अयथार्थ) जानता है, यह बात किसी दूसरे पदार्थ से सम्बन्ध रखती है । ज्ञानके साथ जो यथार्थ अयथार्थ विशेषण लगाये जाते हैं, वे दूसरेके निमित्तसे लगाये जाते हैं । ज्ञानका काम तो इतना ही है कि वह पदार्थों को योग्यतानुसार जानता रहे । जाननमें मंदता या अधिकता होना ज्ञानावरणकर्मका कार्य है, ज्ञानावरणकर्मका कार्य यह नहीं है कि वह ठीक जानें या मिथ्या जानें। अन्यथा ज्ञानावरणके दो भेद मानने चाहिये,-एक मिथ्याज्ञानावरणकर्म और दूसरा सम्यकज्ञानावरणकर्म । परंतु सिद्धान्तमें ज्ञानावरणके दो भेद नहीं कहे गये हैं। ज्ञानावरण तो अपने उदयके अनुसार ज्ञानका आच्छादन करता है-अधिक उदयमें अधिक आच्छादन करता है, मंद उदयमें मंद आच्छादन करता है । जैसा-जैसा आच्छादन होता है एवं जितना-जितना ज्ञानका प्रकाश रहता है, उतना-उतना ही ज्ञान वस्तुओंको जानता है, इसलिये ज्ञानका कार्य जाननामात्र है और प्रतिपक्षी कर्म उतने ही कार्यको रोकता है । ज्ञानके साथ जो सम्यक जानना या मिथ्या जानना ये 'सम्यक मिथ्या' विशेषण लगे हुये हैं, वे ज्ञानके परिणाम नहीं हैं । यदि उन्हें ज्ञानके ही परिणाम कहा जाय तो प्रतिपक्षी कर्म (ज्ञानावरणकर्म ) के कार्य भी दो मानने पड़ेंगे। जिस कर्मका अनुदय होगा, उसीप्रकारका ठीक या विपरीत ज्ञान होगा । ऐसा मानने पर, मिथ्यादृष्टिके भी यथार्थ बोध होना चाहिये, क्योंकि उसके भी अच्छे-बुरे-रूपमें क्रमसे ज्ञानावरणका उदय-अनुदय होता
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