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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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___ अन्वयार्थ-(एवं ) इसप्रकार (सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मकः ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्रस्वरूप (मोक्षमागः) मोक्षका मार्ग (नित्यं ) सदा (तस्य अपि) उस उपदेशग्रहण करनेवाले पात्रको भी ( यथाशक्ति ) अपनी शक्तिके अनुसार ( निषेव्यः ) सेवन करने योग्य ( भवति ) होता है।
विशेषार्थ-इसप्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप वा रत्नत्रयस्वरूप जो मोक्षमार्ग है वह उस पात्रको भी यथाशकि पालन करना चाहिये । यदि शनिकी पूर्णता है, तब तो रत्नत्रयको पूर्णरूपसे पालन करनेके लिये मुनिधर्म धारण कर लेना चाहिये और यदि उतनी शक्ति नहीं है तो क्रमसे एकदेशरूप श्रावकधर्म धारण करना चाहिये । श्रावकधर्म भी अनेकप्रकार है, उसमें भी अपनी सामर्थ्यका विचार कर पहली प्रतिमा, दूसरी प्रतिमा, पांचवीं प्रतिमा, सातवीं प्रतिमा आदि प्रतिमाओंको ग्रहण करना चाहिये । गृहस्थाश्रममें रहकर भी जो श्रावकधर्ममें यथाशक्ति दृढ़ बना रहता है एवं नियमितरूपसे व्रतोंको धारण कर लेता है, वह भी मोक्षमार्गपर आरूढ़ है । जो लोग ऐसा कहतेहुये सुने जाते हैं कि 'गृहस्थाश्रममें रहकर धर्मसाधन नहीं हो सकता' यह उनका कथन केवल प्रमादका सूचक है । यदि सावधान होकर गृहस्थाश्रम में रहकर भी उसके योग्य धर्मका सेवन करना चाहे, तो प्रत्येक पुरुष बहुत कुछ अपना कल्याण कर सकता है । गृहस्थाश्रममें मुनिधर्मका किंचिन्मात्र भी पालन नहीं हो सकता, कारण घर अथवा गृहस्थाश्रम मुनिधर्मके पालन करनेका सर्वथा क्षेत्र नहीं है । मुनिधर्म आरम्भ-परिग्रहसे सर्वथा रहित है, और गृहस्थधर्म आरंभपरिग्रहसहित है; इसलिये गृहस्थाश्रममें मुनिधर्मका पालन तो असभव ही है । उसका क्षेत्र तो जंगल ही है और सर्व आरम्भपरिग्रहसे रहित नग्न दिगम्बरवृत्ति ही है । परन्तु गृहस्थधर्म तो गृहस्थाश्रमें ही रहकर पालनेयोग्य है । जो लोग गृहस्थाश्रममें रहते हुये गृहस्थधर्म-श्रावकधर्म पालन नहीं करते हैं, वे श्रावक भी कहलानेके योग्य नहीं हैं । कारण-जो श्रावक
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