Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
कर्मसिद्धांतका रहस्य मिलता है कि जो जैसा भाव करता है, उस भावका असर उसके कर्मपर वैसा ही पड़ता है। इसलिये फलकाल प्राप्त होने पर उस व्यक्तिको अपने कर्तव्यके अनुसार फल भोगना पड़ता है । कर्मों में ऐसी रसशक्ति क्यों पड़ती है ? इसका कारण आत्मा पर लगा हुआ कषायभाव रूपी मसालौं है । जबतक वह मसाला आत्मारूपी कांच पर लिपटा हुआ है, तबतक उसके कर्तव्य-द्वारा संचित किये गये कर्मों पर उसका वैसा असर पड़ता है, जिससमय वह कषायरूपी मसाला आत्मा रूपी कांचसे दूर हो जाता है, उससमय आत्माका कर्मों पर कोई असर नहीं पड़ता
और न कर्मों का ही आत्मा पर कोई असर पड़ता है । उपर्युक कथनसे यह बात भलीभांति सिद्ध होती है कि जीव और कर्मका परस्पर ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध है कि जिससे एकका दूसरे पर प्रभाव पड़ताहुआ है । जिसकी शक्ति प्रवल होती है, वही अपने बलसे दूसरे पर आक्रमण कर उसे नष्ट करनेका प्रयास करता है । इसीलिये कभी आत्मा पर कर्म की विजय होती है, और कर्मभार हलका होने पर कभी आत्माकी कर्म पर विजय होती है । ऐसी संतति तबतक चलती रहती है, जबतक कि आत्मा अपने स्वभावसिद्ध पुरुषार्थवलसे उस परवस्तु-कर्मको अपनेसे जुदा नहीं कर देता।
अज्ञानी जीवोंकी समझ
एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोपि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ॥१४॥
अन्वयार्थ-( एवं ) इसप्रकार ( अयं ) यह जीव ( कर्म कृतेः ) कर्मकृत रागादिक एवं शरीरादिक ( भावः ) भावोंसे (असमाहितः अपि ) सहित नहीं है तो भी ( वालिशानां ) अज्ञानियोंको (युक्त इव ) 'उन भावोंसे' सहित सरीखा ( प्रतिभाति ) मालूम होता है, । सः ) वह ( प्रतिभासः ) प्रतिभास-समझ वा प्रतीत ( खलु ) निश्चयसे । भवबीज ) संसारका कारणं है।
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