Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ] nanananananananananananananananananananananananananananan आत्माको एकदेश त्यागरूप श्रावकधर्मका उपदेश देना ठीक है।
कुछ लोगोंकी ऐसी शंकाएँ सुनी जाती हैं कि 'पहले नीचे दर्जेका ही उपदेश देना ठीक है; यदि पहलेसे ही ऊंचे दर्जेका उपदेश दे दिया जायेगा, तो वह पात्र घबड़ा जायगा अथवा ऊंचे दर्जेके मार्गको पकड़ कर उसे छोड़ देगा; वैसी अवस्थामें उसका थोड़ा सधार भी नहीं हो सकेगा।' ऐसी शंकाओंके करनेवालोंको इस बातपर भी थोड़ी देर विचार करना चाहिये कि आचार्योंने ऐसी कथन पद्धति क्यों बतलायी ? उनकी अनुभवपूर्ण इस उपदेशपद्धतिमें भी कोई भीतरी रहस्य अवश्य होगा। जिन्होंने अपना समस्त जीवन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके उपार्जनमें लगा डाला है, जिन्होंने आत्माओंका सच्चा सुधार किस पथसे एवं किन किन कठिनाइयोंके मार्गसे होता है इस बातको सुनकर ही नहीं किंतु अपने आत्माको स्वयं उन मार्गों में ले जाकर स्वानुभवसे जाना है, फिर 'सच्चा सुधार क्या है और उसका मार्ग किस रीतिसे होता है, किस प्रकारका उपदेश किस समय किस जीवके लिये हितकर हैं' इस बातको आचार्य जान सकते हैं ? या उस मार्गसे कोशोंदूर रहनेवाले एवं आत्मसुधारके स्वादसे रहित पुरुष जान सकते हैं । शंकाकारोंको सोचना चाहिये कि यदि किसी पात्रको पहले ही जघन्यश्रेणीका उपदेश देकर उसका जघन्यरूपमें ही साहस बढ़ाया जाय, तो फिर उसका साहस उसी जघन्य मार्गमें कार्यानुगामी बन जाता है । संसारी आत्माका यह स्वभाव-सा (वास्तवमें विभाव) पड़ गया है कि वह आत्मीय सुधारमें प्रमाद करता है परन्तु सांसारिक वासनाओंमें बिना उपदेशके भी प्रवृत्ति करता जाता है, यह एक कर्मकी ही विचित्रता है । ऐसी अवस्थामें यदि एकबार बड़े साहस-पूर्वक आत्मीय सुधारकी ओर बढ़ता है । फिर यदि उसे हलका मार्ग मिल जाता है, तो उसीमें वह रह जाता है; क्योंकि साहसकी मात्रा तो उपदेशकी प्रेरणा से उस क्षणमें जागृत हुई थी, सो तो अब रही नहीं, और प्रमोद तो सदा
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